वण माह का महीना हो और लडूडू गोपाल, माखनचोर, रणछोड़, नंदलाल, कृष्ण इत्यादि नामों से जाना जाने वाले भगवान श्री कृष्ण का जिक्र न हो, यह कैसे संभव है। जन्म से लेकर मृत्यु तक भगवान श्री कृष्ण का अवतरण एक विशेष उद्देश्य को लेकर हुआ था, एक संदेश छुपा हुआ था, एक दर्शन का प्रतिपादन किया गया।
विष्णु भगवान के अंश श्री कृष्ण सदियों से पूज्यनीय रहे हैं और पूजे जाते रहेंगे। उन्हें प्रसन्न करने के लिए भावों का प्रकटीकरण करने के लिए, आस्था
प्रदर्शन के लिए, कर्म की प्रधानता स्थापित करने के लिए, जीवन को प्राकृतिक रूप से जीने के लिए इत्यादि-इत्यादि पूजा-अर्चना के साथ-साथ 56 (छप्पन) भोग के अर्पण का चलन प्राचीन काल से ही है। इसका महत्व व रहस्य कि हम 56 (छप्पन) भोग
क्यों लगाते हैं, क।ा एक प्रयास।
ऐसा भी कहा जाता है कि माता यशोदा जी बालकृष्ण को एक दिन में अष्ट प्रहर भोजन कराती थीं अर्थात बालकृष्ण आठ बार भोजन करते थे और इस विषय में
कुछ कथन भी प्रचलित हैं जो इस प्रकार से हैं –
कथन 1 – जब इंद्र के प्रकोप से सारे ब्रज को बचाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठाया था, तब लगातार सात दिन तक भगवान ने अन्न जल ग्रहण नहीं किया। आठवें दिन जब भगवान ने देखा कि अब इंद्र की वर्षा बंद हो गई है, सभी ब्रजवासियों को गोवर्धन पर्वत से बाहर निकल जाने को कहा, तब दिन में आठ प्रहर भोजन करने वाले ब्रज के नंदलाल कन्हैया का लगातार सात दिन तक भूखा रहना उनके ब्रजवासियों और मैया यशोदा के लिए बड़ा कष्टप्रद हुआ।
भगवान के प्रति अपनी अन्य श्रद्धा भक्ति दिखाते हुए सभी ब्रजवासियों सहित यशोदा जी ने 7 दिन और अष्ट प्रहर के हिसाब से 7ग8= 56 व्यंजनों का भोग बाल कृष्ण को लगाया।
कथन 2 – श्रीमद्भागवत के अनुसार, गोपिकाओं ने एक माह तक यमुना में भोर में ही न केवल स्नान किया, अपितु कात्यायनी मां की अर्चना भी इस मनोकामना से की कि उन्हें नंदकुमार ही पति रूप में प्राप्त हों। श्रीकृष्ण ने उनकी मनोकामना पूर्ति की सहमति दे दी। व्रत समाप्ति और मनोकामना पूर्ण होने के उपलक्ष्य में ही उद्यापन स्वरूप गोपिकाओं ने छप्पन भोग का आयोजन किया और इस प्रकार गोपिकाओं ने भेंट किए छप्पन भोग भगवान श्री कृष्ण जी को।
कथन 3 – छप्पन भोग हैं, छप्पन
सखियां – ऐसा भी कहा जाता है कि गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण राधिका जी के साथ एक दिव्य कमल पर विराजते हैं। उस कमल की तीन परतें होती हैं। प्रथम परत में ‘आठ’, दूसरी में ‘सोलह‘ और तीसरी में ‘बत्तीस पंखुड़ियां’ होती हैं।
प्रत्येक पंखुड़ी पर एक प्रमुख सखी और मध्य में भगवान विराजते हैं। इस तरह कुल पंखुड़ियों की संख्या छप्पन होती है जो कि भगवान को लगाया गया भोग उनकी सखियों को भी प्राप्त हो सके इसलिए छप्पन भोग लगाये जाते हैं। 56 की संख्या का वास्तव में यही अर्थ है, इसीलिए 56 की संख्या को शुभ माना जाता है।
सनातन संस्कृति में कोई भी कृत्य एवं रीति-रिवाज महत्वहीन या निर्थरक नहीं होता। उसके पीछे की धारणा ज्ञान-विज्ञान, तप बल रहस्यमयी सृष्टि को प्रकृतिनुरूप समझ और परखकर ही बनाई गयी है एवं जीवन को सार्थक बनाने की दिशा में अग्रसर रहना सिखाया
गया है। द
- सम्पदा जैन
छप्पन प्रकार के भोग इस प्रकार हैं –
1, भक्त (भात)
- सूप (दाल)
- प्रलेह (चटनी)
- सदिका (कढ़ी)
- दधिशाकजा (दही शाक की कढ़ी)
- सिखरिणी (सिखरन)
- अवलेह (शरबत)
- बालका (बाटी)
- इक्षु खेरिणी (मुरब्बा)
- त्रिकोण (शर्करा युक्त)
- बटक (बड़ा)
- मधु शीर्षक (मठरी)
- फेणिका (फेनी)
- परिष्टड्ढश्च (पूरी)
- शतपत्रा (खजला)
- सधिद्रक (घेवर)
- चक्राम (मालपुआ)
- चिल्डिका (चोला)
- सुधाकुंडलिका (जलेबी)
- धृतपूर (मेसू)
- वायुपूर (रसगुल्ला)
- चन्द्रकला (पगी हुई)
- दधि (महारायता)
- स्थूली (थूली)
- कर्पूरनाड़ी (लौंगपूरी)
- खंड मंडल (खुरमा)
- गोधूम (दलिया)
- परिखा
- सुफलाढय़ा (सौंफ युक्त)
- दधिरूप (बिलसारू)
- मोदक (लड्डू)
- शाक (साग)
- सौधान (अधानौ अचार)
- मंडका (मोठ)
- पायस (खीर)
- दधि (दही)
- गोघृत
- हैयंगपीनम (मक्खन)
- मंडूरी (मलाई)
- कूपिका (रबड़ी)
- पर्पट (पापड़)
- शक्तिका (सीरा)
- लसिका (लस्सी)
- सुवत
- संघाय (मोहन)
- सुफला (सुपारी)
- सिता (इलायची)
- फल
- तांबूल
- मोहन भोग
- लवण
- कषाय
- मधुर
- तिक्त
- कटु
- अम्ल