आखिर साफ-सुथरी राजनीति का अगुवा कौन बनेगा ?


संपादकीय मार्च 2012

देश का प्रत्येक नागरिक चाहता है कि राजनीति साफ-सुथरी हो। लोगों का स्पष्ट रूप से मानना है कि यदि राजनीति स्वच्छ एवं निष्कलंक हो जायेगी, तो देश का वातावरण अपने आप ठीक हो जायेगा। आमतौर पर अपने देश में यह मान लिया गया है कि राजनीति ही सभी बुराइयों की जननी है। काले धन की वापसी के लिए योग गुरु बाबा रामदेव के नेतृत्व में देश में एक लम्बा आंदोलन चला। दिल्ली के रामलीला मैदान में उन्होंने एक विराट प्रदर्शन किया, मगर उस आंदोलन को कुचलने के लिए क्या-क्या हुआ, यह सभी को पता है। इसके अलावा सुप्रसिद्ध समाजसेवी अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार मिटाने के लिए जन लोकपाल हेतु रामलीला मैदान में एक लम्बा प्रदर्शन चला। लोकपाल बनाने के लिए सरकार ने आश्वासन भी दिया, मगर लोकपाल बिल का क्या हश्र हुआ, यह सभी के सामने है।

चुनाव के पहले सभी राजनीतिक दल दावा करते हैं कि वे टिकट उन्हीं को देंगे, जिनकी छवि साफ-सुथरी हो मगर टिकटों की बंदर-बांट जब शुरू होती है तो राजनीतिक दल सिर्फ यह देखते हैं कि चुनाव जीतने की संभावना किसकी सबसे अधिक है? उसकी छवि कैसी है, इस तरफ ध्यान किसी का नहीं जाता है? इस मामले में क्षेत्राीय दलों की स्थिति तो बहुत अजीब-सी है। चुनाव जीतने के लिए वे किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। जहां तक राष्ट्रीय राजनैतिक दलों की बात है तो उसमें भारतीय जनता पार्टी अपने को अन्य दलों से अलग बताने का दावा करती है। भाजपा के नेता बड़े दावे से यह बात कहते हैं कि ‘वी आर डिफरेन्ट टू इच अदर’ मगर व्यावहारिक धरातल पर क्या हो रहा है, यह हर कोई देख रहा है। वैसे भी देखा जाये तो आम जनता की नजर में थोड़े बहुत अंतर के साथ सभी दल एक ही जैसे हैं। ऐसी स्थिति में सवाल यह उठता है कि देश में साफ-सुथरी राजनीति का वाहक कौन बनेगा? बाबा रामदेव एवं अन्ना हजारे ने पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जो वातावरण तैयार किया था, विधानसभा चुनावों में उसका व्यापक असर देखने को नहीं मिला। इस बात से पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता कि भ्रष्टाचार पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में मुद्दा नहीं बना, मगर यह मुद्दा निर्णायक स्थिति में नहीं था, क्योंकि टिकट वितरण में कमोबेश सभी दलों ने एक ही रास्ता अख्तियार किया। सभी दलों ने सिर्फ इस बात पर ध्यान दिया कि चुनाव कौन जीत सकता है?

अभी हाल ही में टीम अन्ना के सदस्य अरविंद केजरीवाल ने कहा कि संसद और विधानसभा लोकतंत्रा के मंदिर हैं। इस मंदिर में ब्लू फिल्में देखी जाती हैं, बिल फाड़े जाते हैं और कुर्सियां फेंकी जाती हैं। उनकी यह बात राजनीतिक दलों को नागवार लगी। तमाम राजनीतिक दलों ने कहा कि अरविंद केजरीवाल का बयान लोकतंत्रा की भावना के खिलाफ है। उसके बाद उन्होंने कहा कि मैं अपने बयान पर अडिग हूं और उन्होंने यहां तक कहा कि यदि मैंने गलत कहा है तो मेरे ऊपर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाये। सिर्फ यही नहीं, बाद में उन्होंने अपना लहजा और सख्त कारते हुए कहा कि भारत में पार्टी हाईकमान की तानाशाही का राज है। संसद में 15 ऐसे सदस्य हैं, जिन पर मर्डर केस हैं। 23 पर जान से मारने की कोशिश जैसे संगीत अपराध हैं। 11 के खिलाफ 420 के मामले हैं, जबकि 13 के खिलाफ किडनैपिंग के तो मैंने जो कुछ कहा, गलत क्या है? राजनीतिक दल यदि तिलमिलाते हैं, तो तिलमिलाते रहें, मगर जो सत्य है, उससे बहुत दिनों तक मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है।

वर्तमान परिस्थितियों में अब सवाल यह उठता है कि जब चारों तरफ अंधेरा ही है तो उजाले की उम्मीद कैसे की जा सकती है? सामाजिक संगठनों ने इस मामले में जो भी प्रयास किया है, उनके बारे में यही कहा जा सकता है कि इन संगठनों को तो चुनाव लड़ना नहीं है। चुनावी राजनीति तो राजनीतिक दल करते हैं। यह काम राजनीतिक दलों को ही करना है। यह बात सत्य है कि चुनावी राजनीति में सभी दल जीत की संभावनाओं पर विशेष रूप से ध्यान देते हैं, मगर किसी न किसी राजनीतिक दल को तो साफ-सुथरी राजनीति का वाहक बनना ही होगा।