राजनीति में नयेपन का दौर


भारतीय राजनीति में आजकल जो कुछ देखने को मिल रहा है वह काफी हद तक राजनीतिक पंडितों को समझ में नहीं आ रहा है। सर्वे करने वाली कंपनियां भी जनता का मूड भांप पाने में कामयाब नहीं हो पा रही हैं। चुनाव परिणामों की घोषणाएं बार-बार गलत साबित हो रही हैं। आखिर ऐसा क्या कारण है कि राजनीतिक दल, राजनीतिक विश्लेषक एवं सर्वे कंपनियां जनता का मूड भांपने में नाकाम साबित हो रही हैं।

अभी पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों में कुछ ऐसा ही देखने को मिला। बिहार में नीतीश कुमार की बंपर विजय में प्रशांत किशोर ने खूब वाहवाही लूटी थी किंतु उत्तर प्रदेश में फेल हो गये। पंजाब में कांग्रेस को जीत तो मिली किंतु उसका श्रेय कैप्टन साहब ले गये। आखिर जनता क्या चाहती है, क्या हमारे राजनेता एवं राजनीतिक दल जनता-जनार्दन से इतना कट गये हैं कि वे जनता का मिजाज ही नहीं पढ़ पा रहे हैं। निश्चित रूप से इसके व्यापक विश्लेषण की जरूरत है। इन बातों पर यदि विचार किया जाये तो कहा जा सकता है कि लोग वर्षों से स्थापित राजनीति से ऊबने लगे हैं। घिसी-पिटी राजनीति से लोगों का मन उचटने लगा है। भारत एवं विश्व राजनीति में ऐसे कई उदाहरण हैं, जिससे यह कहा जा सकता है कि लोग राजनीति में बदलाव चाहते हैं एवं स्थापित राजनीति से छुटकारा चाहते हैं।

उदाहरण के तौर पर अभी हाल ही में अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति की कुर्सी पर पहुंचने में कामयाब हो गये जबकि वे कहीं से भी राजनीतिक व्यक्ति नहीं थे। इसके बावजूद यदि वे राष्ट्रपति चुने गये तो उसके कुछ महत्वपूर्ण कारण हैं। पहली बात यह है कि चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने वे बातें कहीं जिसकी चर्चा करने से स्थापित राजनेता कतराते हैं। उदाहरण के तौर पर उन्होंने कहा कि वे अमेरिका आने वाले मुस्लिम नागरिकों की जांच करायेंगे। हालांकि, राजनीति में ऐसी बातें बोलना राजनीति की स्थापित परंपरा का स्वभाव नहीं है क्योंकि इस प्रकार की भाषा से संदेह की सुई पूरे एक समाज की तरफ जाती है। वैसे भी किसी एक समाज के प्रति किसी भी प्रकार की बात करना अनुचित होता है। चूंकि, पूरी दुनिया में इस समय आतंक का जो रूप है जितने संगठन हैं, उसमें अधिकांशतः मुस्लिम संगठन ही हैं। हो सकता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर इस प्रकार की बात कही, उनकी इस बात की अमेरिका सहित पूरी दुनिया में आलोचना भी हुई। अमेरिकी मीडिया और विपक्षी राजनेताओं ने उनके खिलाफ अभियान छेड़ दिया किंतु अमेरिकी लोकतंत्रा दुनिया के अन्य देशों से कहीं बेहतर है। अतः वे राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनने में कामयाब हो गये क्योंकि शायद अमेरिका का जनमानस यह चाहता था कि आंतरिक सुरक्षा को लेकर कुछ ठोस उपाय किये जायें।

इसके अलावा उन्होंने और भी कई बातें ऐसी कहीं जो राजनीति के स्थापित मानदंडों के खिलाफ थीं। राष्ट्रपति बनते ही डोनाल्ड ट्रंप ने कई मुस्लिम देशों के नागरिकों को अमेरिका में आने पर प्रतिबंध लगा दिया, इससे वहां काफी हो-हल्ला मचा। अमेरिकी अदालत में भी डोनाल्ड ट्रंप को विरोध झेलना पड़ा, किंतु वे अपनी बात पर अड़े रहे, उन्होंने कहा कि वे वही कर रहे हैं, जिसका उन्होंने जनता से वायदा किया था। वैसे भी देखा जाये तो कहा जा सकता है कि कुछ ऐसे देश हैं जिनका नाम आतंक फैलाने वालों में प्रमुखता से आता है।

भारत की बात की जाये तो यहां भी कई ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं जब राजनीति के स्थापित दिग्गजों को नौसिखिये नेताओं ने धूल चटा दी। राजधानी दिल्ली में आम आदमी पार्टी की ऐसी हवा चली कि वर्षों से स्थापित भाजपा एवं कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। यह अलग बात है कि आम आदमी पार्टी ने चुनावों पूर्व जो कुछ भी कहा उसे पूरा कर पाने में वह सफल नहीं हो पा रही है या पार्टी ने अब वही सब कुछ करना शुरू कर दिया है जो राजनीति के स्थापित मापदंड हैं। यही कारण है कि उसका ग्राफ तेजी से गिर रहा है। चुनाव से पहले आम आदमी पार्टी ने कहा था कि वह वीआईपी कल्चर खत्म करेगी, उसके नेता बड़े-बड़े मकानों में नहीं रहंेगे किंतु सत्ता में आते ही उसके नेता बड़े-बड़े बंगलों की तलाश करने लगे और सुख-सुविधाओं में मशगूल हो गये। किंतु, ‘आप’ ने अब राजनीति की स्थापित परंपरा को तेजी से और अधिक आगे बढ़ाने का काम किया है। खैरात बांटकर चुनाव जीतने का अभियान ‘आप’ ने और तेज कर दिया। दिल्ली में पार्टी ने नारा दिया कि पानी माफ और बिजली हाफ।

चुनाव से पहले आम आदमी पार्टी ने ऐसी कई बातें कहीं थीं, जिससे जनता काफी प्रभावित हुई। मसलन, पार्टी ने कहा था कि वह कोई भी बड़ा फैसला जनता से पूछ कर करेगी और पार्टी के नेता साधारण कपड़े पहनकर आम जनता के बीच रहते हैं किंतु अब उन्होंने अपने सिद्धांतों से पल्ला झाड़ लिया है और वही सब करने लगे हैं जो अब तक राजनीति में होता आया है। यही कारण है कि पार्टी को लोगों ने रिजेक्ट करना शुरू कर दिया है। झुग्गी-बस्तियों एवं अल्पसंख्यक समाज का तुष्टीकरण करने में आम आदमी पार्टी सभी दलों से आगे निकल चुकी है। इसका परिणाम उसने पंजाब और गोवा के विधानसभा चुनावों में देख लिया। लोगों को लगने लगा है कि जब यही सब करना था तो तो पुराने दलों में क्या बुराई है? एक और नये दल को चुनाव जितवाने की आवश्यकता ही क्या थी? हालांकि, वह पंजाब में बीस सीटें प्राप्त करने में कामयाब रही और गोवा में उसे भारी निराशा हाथ लगी है।

राजनीति में बदलाव की बात की जाये तो उसका सबसे बड़ा उदाहरण प्रधानमंत्राी नरेंद्र मोदी हैं। हालांकि, वे एक लंबे अरसे से राजनीति में हैं किंतु राजनीति में समय के मुताबिक किस प्रकार के बदलाव की जरूरत है उसे उन्होंने तरजीह दी। प्रधानमंत्राी बनने के बाद श्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से अपने पहले संबोधन में कहा था कि वे आज बहुत बड़ी-बड़ी बातों की चर्चा नहीं करेंगे, बल्कि बहुत ही छोटी-छोटी बातों की चर्चा करेंगे, उन्होंने स्वच्छ भारत अभियान की चर्चा की, बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ की बात कही, सांसद आदर्श ग्राम योजना की बात कही, बिजली बचाने की बात कही, पर्यावरण रक्षा की बात कही। उस समय राजनीति के स्थापित दिग्गजों ने कहा कि क्या यह प्रधानमंत्राी का भाषण है? क्या प्रधानमंत्राी को इतनी छोटी-छोटी बातें करनी चाहिए? प्रधानमंत्राी को राष्ट्रीय सुरक्षा, विदेश नीति, अर्थनीति जैसे गंभीर एवं बड़े मसलों पर बात करनी चाहिए, किंतु प्रधानमंत्राी नरेंद्र मोदी ने छोटी-छोटी बातों एवं छोटे-छोटे कार्यों के द्वारा राजनीति की दशा एवं दिशा बदल दी। आज भारतीय समाज में स्वच्छता के प्रति जागरूकता का भाव पैदा हुआ है, यह किसी दबाव में नहीं बल्कि स्वप्रेरित है। बेटियों को पढ़ाने एवं उनके लालन-पालन में लोगों की जिज्ञासा बढ़ी है। बिजली बचाने के प्रति लोग सचेत हुए हैं।

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में वाराणसी में प्रधानमंत्राी जब रोड शो कर रहे थे तो कुछ लोग कह रहे थे कि यह प्रधानमंत्राी की गरिमा के खिलाफ है, यानी कि राजनीति के स्थापित मापदंडों के अनुसार प्रधानमंत्राी को राज्यों के विधानसभा चुनावों में चुनावी रैलियां कम करनी चाहिए एवं रोड शो तो करना ही नहीं चाहिए किंतु प्रधानमंत्राी के मन में यह भाव था कि प्रधानमंत्राी होने के साथ-साथ वे वाराणसी के सांसद भी हैं। अतः वाराणसी के विधानसभा प्रत्याशियों की चुनाव में मदद करना उनकी जिम्मेदारी है। अन्य सांसदों की तरह उन्होंने भी अपना काम किया। ऐसा करना राजनीति के स्थापित मापदंडों के अनुकूल भले ही न हो किंतु देश की जनता ऐसा चाहती है। चुनावों के बाद जनता ने दिखा दिया कि वह चाहती है कि सबका विकास एक समान हो किंतु तुष्टीकरण किसी का न हो जबकि अन्य दल सिर्फ तुष्टीकरण में ही लगे रहे। प्रधानमंत्राी बनने के बाद संसद में पहली बार प्रवेश करने पर संसद के गेट पर जिस प्रकार उन्होंने माथा टेका, पूरी दुनिया में एक मिसाल बन गयी। आखिर यह सब क्या है, निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह सब स्थापित राजनीति के मापदंडों के खिलाफ है किंतु जनता यह चाहती है कि राजनेता अपने आपको किसी विशेष व्यक्ति के रूप में नहीं बल्कि सामान्य व्यक्ति के रूप में पेश करें। प्रधानमंत्राी नरेंद्र मोदी ने यही सब किया और आज देश की जनता उनके साथ है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्राी ममता बनर्जी, गोवा के मुख्यमंत्राी मनोहर पर्रिकर वामपंथी नेताओं, भाजपा एवं आर.एस.एस. के लोगों की सादगी जनता को बहुत पसंद आती है। अब यह अपने ऊपर निर्भर है कि राजनीति में आने के बाद लोग अपने आप को कितना बदल लेते हैं?

असम में काफी अरसा पहले प्रफुल्ल कुमार महंत की सरकार बनी, तमिलनाडु में एम.जी. रामचंद्रन की सरकार बनी, आंध्र प्रदेश में एन.टी. रामाराव की सरकार बनी। हिन्दुस्तान की राजनीति में ये सब ऐसे उदाहरण हैं जिससे यह साबित होता है कि राजनीति में जिसने भी कुछ अलग करने की बात कही, जनता ने उसका समर्थन किया एवं भरपूर सहयोग भी दिया किंतु ज्यों ही जनता जनार्दन को यह लगता है कि उसके साथ छल हुआ है तो वह पलटने में भी देर नहीं लगाती है। आज प्रफुल्ल कुमार महंत राजनीति में हाशिये पर खड़े हैं। राजनीति में कुछ अलग करने वालों को जनता समर्थन तो देती है किंतु उम्मीदें अन्य दलों की अपेक्षा ऐसे दलों से ज्यादा पाल लेती है किंतु जब उसे लगता है कि वादा खिलाफी हो रही है तो उसे उतनी ही तेजी से अस्वीकार भी कर देती है जितनी तेजी से स्वीकार करती है। अभी हाल ही में पांच राज्यों में चुनाव

परिणामें से थोड़ा-बहुत यह साबित होता है कि खैरात बांटकर चुनाव जीतने की परंपरा का अति शीघ्र समापन हो सकता है।

निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि घिसी-पिटी राजनीति से लोग अब ऊबने लगे हैं, नयेपन की तलाश में हैं। राजनीति में रहते हुए लोग जन-भावनाओं के अनुसार समय≤ पर अपने को कैसे एडजस्ट किया जाये, इसके लिए जनता से रूबरू होना पड़ेगा और उसके सुख-दुख में खड़ा रहना पड़ेगा अन्यथा अब तो मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों एवं स्थापित नेताओं के चुनाव हारने की परंपरा तेजी से बढ़ रही है यानी कि कौन नेता कितना बड़ा है, इस बात से जनता का कोई लेना-देना नहीं है बल्कि वह यह देखती है कि कौन उसके कितना करीब है अन्यथा कोई जमाना ऐसा था जब बड़े नेता कम ही चुनाव हारा करते थे। चूंकि अब बदलाव का दौर है, उसी के मुताबिक अपने को ढालना ही होगा अन्यथा लंबे समय तक राजनीति में अपने को टिकाये रख पाना बहुत मुश्किल होगा।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि राजनीति में पूरे आत्म विश्वास के साथ सत्य बोलना बहुत बड़ी बात है। इससे जनता प्रभावित होती है और लोगों का दिल जीता जा सकता है। कभी-कभी देखने में आया है कि किसी भी झूठ को यदि बार-बार बोला जाये तो वह भी सत्य लगने लगता है। हिटलर के एक प्रचार मंत्राी ने कहा था कि यदि किसी झूठ को भी निन्यानबे बार बोला जाये तो सौवीं बार लोग उसे सत्य मान लेते हैं इसीलिए कहा जाता है कि राजनीति में नयेपन का दौर है, इसीलिए राजनीति में घिसे-पिटे फार्मूले पर काम करने के बजाय अपनी बात मजबूती एवं पूरे आत्म विश्वास से करनी चाहिए। इससे जनता का सहयोग एवं समर्थन मिल जाता है और यही शक्ति स्वरूप है।