कल्पनाओं का चित्राण कर चित्रों द्वारा प्रकटीकरण करना भी अपने आप में एक। कला है। भारतवर्ष में अनेकताओं के भंडार होते हुए भी एकता परिलक्षित होती है परंतु हर क्षेत्रा के निवासियों के रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज इत्यादि के साथ-साथ सोचने, समझने और प्रकटीकरण की अलग-अलग धाराएं होती हैं।
पिछले अंक में हमने मधुबनी चित्रा कला के विषय में कुछ जाना था। आज हम राजस्थानी चित्राण शैली की चर्चा करते हैंः-
राजस्थानी चित्राशैली को राजपूत चित्राकला भी कहा जाता है और राजस्थान की पहाड़ी चित्राकला राजस्थान के व्यापक भूभाग में फैली हुई है। वैसे तो 17वीं शताब्दी तक राजस्थानी चित्राकला में जैन शैली, गुजराती शैली का प्रभाव रहा, मगर उसमें भी बदलाव होते रहे और 18वीं शताब्दी के आने तक राजस्थानी चित्रा कला पर मुगल शैली का प्रभाव पड़ने लगा।
राजस्थानी चित्रा शैली में प्रमुख रूप से निम्नलिखित शैली मशहूर हैं-
मेवाड़ शैली- इस शैली का चलन उदयपुर, नाथद्वारा, देवगढ़ आदि क्षेत्रों में होता है जिसमें सन् 1260 व सन् 1423 के जैन शैली के चित्रा काफी प्रमुख रहे हैं। इस शैली में लाल व पीले रंगों से कदम्ब के पेड़ों की अधिकता के साथ -साथ शिकार के दृश्यों में त्रिआयाम प्रभाव दिखाई देता है। साथ-साथ नाथद्वारा शैली में श्रीनाथ जी को यहां कृष्ण जी का प्रतीक मानकर कृष्ण लीलाओं को चित्रों में उतारने की प्रथा प्रचलित हुई और आज भी है। ऐसे चित्रा जो कि मूर्तियों के दायें-बायें और पीछे, कागजों पर या कपड़ों पर पर चित्राण किये जाते हैं और उन्हें पिछवई चित्रा कहा जाता है।
देवगढ़ शैली- हरे व पीले रंगों का प्रयोग होकर महल इत्यादियों का चित्राण किया जाता है।
मारवाड़ चित्रा शैली- इस शैली का चलन जोधपुर, बीकानेर, किशनगढ़, अजमेर, नागौर व जैसलमेर आदि क्षेत्रों में होता है। इसमें लाल व पीले रंगों का उपयोग अधिक किया जाता है जिसमें बादलों व प्रेम कहानियों जैसे- ढोला मारू, महेंद्र मूमल का चित्राण किया जाता है।
इसमें पुरुष लंबे व महिलाएं छोटे कद की बनायी जाती हैं। इसमें बीकानेर शैली भी आती है। इसमें पंजाबी, मुगल व दक्वनी चित्रा कला का प्रभाव था। इसमें भागवत पुराण का चित्राण किया गया है। इसमें ऊंट की खाल पर चित्राकारी की जाती है, जो उस्ता कला कहलाती है। इसमें लाल, बैंगनी व स्लेटी रंगों का प्रयोग किया जाता है।
इसी शैली में किशनगढ़ शैली भी आती है। इस पर वल्लभ संप्रदाय में प्रभाव के कारण इसमें भगवान श्रीकृष्ण के चित्रा अधिक बनाये जाते हैं। इसमें सफेद और गुलाबी रंगों का प्रयोग किया जाता है। इसी में कांगड़ा शैली का प्रभाव है व नारी सौंदर्य का चित्राण भी किया गया है। चित्राकार मोरध्वज निहालचंद ने रसिक बिहारी को राधा के रूप में चित्राण किया जिसे ‘बणी-ठणी’ कहा जाता ह।
इसी शैली में अजमेर शैली की चित्रा कला भी आती है जिसमें साहिबा नामक महिला चित्राकार का नाम मिला है। इसमें जैसलमेर शैली का नाम मिलता है। इसमें जैसलमेर शैली भी आती है इसमें किसी भी चित्रा कला का प्रभाव नहीं है। इस शैली में नागौर शैली भी आती है। इसमें हल्के रंगों का प्रयोग किया जाता है जिसमें पारदर्शी कपड़े चित्रित किये जाते हैं।
हाड़ोती चित्रा कला- इस शैली में बूंदी शैली आती है जो मेवाड़ शैली से प्रभावित रही। इसमें हरे रंग का प्रयोग किया जाता है। इसमें राग-रागिनी, नायिका भेद, ऋतु वर्णन, बारहमासा, कृष्ण लीला दरबार, शिकार, हाथियों की लड़ाई, उत्सव अंकन आदि इस शैली का आधार रही है। सन् 1750 में राव उम्मेद सिंह का स्वर्ण काल रहा और उन्होंने चित्रा शालाओं की स्थापना की जो भित्ति चित्रों का स्वर्ग है। इस शैली में कोटा शैली भी आती है जिसमें नारी सौंर्दय, शिकार के दृश्यों व महिलाओं को भी पशुओं का शिकार करते हुए दिखाया है।
ढूंढाड़ चित्रा कला शैली- ढूंढाड़ शैली में मुगल प्रभाव अधिक रहा। इसमें आमेर शैली आती है जिसमें केसरिया, लाल, हरा और पीले रंग का अधिक प्रयोग किया जाता है जिसमें आदम कद, उद्यान चित्राण हाथियों का चित्राण और भित्ति चित्रा अधिक दिखाई देते हैं। इसमें अलवर चित्रा कला भी आती है जिसमें ईरानी मुगल व जयपुर की चित्रा कला का प्रभाव अधिक दिखाई देता है। इसमें चिकने उज्जवल व चमकदार रंगों का प्रयोग किया जाता है । इस शैली में योगासन चित्राण, लघु चित्राण व वेश्याओं के चित्रा बने।
इस शैली में हाथी दांत पर चित्राकारी मूलचंद नामक चित्राकार ने की थी। इसमें उणियारा शैली भी आती है इसमें बूंदी एवं जयपुर शैली का प्रभाव है और इसी में शेखावटी शैली भी आती है। इस चित्रा कला में यूरोपीय प्रभाव ज्यादा है इसमें नीले तथा हरे रंगों का प्रयोग अधिक किया जाता है। इस शैली में तीज-त्यौहार, शिकार, महफिल एवं श्रृगारी भावों आदि का चित्राण हुआ है।
यहां पर यह भी बताना अति आवश्यक हो गया है कि चित्रा कला, रंगाई कला, वेश भूषा के अलग-अलग तौर-तरीके इत्यादि सब अलग-अलग शैलियां हैं जैसे कि रंगाई कला में बूंदी, बंधेज, जोधपुरी, छापा इत्यादि होते हैं और वेशभूषा में लहंगा-चोली, धोती-अंगरक्खा के साथ-साथ पगड़ियों की पहनने और बनाने में विभिन्नतायंे होती हैं इसलिए उन्हें चित्रा कला इतिहास के साथ नहीं जोड़ा जा सकता। हालांकि, यह सभी चित्रों में जरूर दिखई जाती है और देखने में मिलती हैं। द
- शाम्भवी जैन
राजस्थानी चित्रा शैली की विशेषताएं
द लोग जीवन का सानिध्य, भाव प्रवणता का प्राचुर्य, विषय वस्तु का वैविध्य, वर्ण वैविध्य, प्रकृति परिवेश देशकाल के अनुरूप आदि विशेषताओं के आधार पर इसकी अपनी पहचान है।
# राजस्थानी चित्रा कला में प्रकृति का मानवीकरण किया गया है। उसे मनुष्य के सुख-दुख के साथ जोड़ा गया है।
# राजस्थानी चित्रा कला में मुख्य आकृति व पृष्ठभूमि में सामंजस्य बना रहता है।
# राजस्थानी चित्रा कला में रंग, वेशभूषा तथा प्रकृति चित्राण देशकाल के अनुरूप है।
# राजस्थानी चित्रा कला में चमकीले रंगों का प्रयोग तथा प्रकृति का चित्राण अधिक किया गया है।
# इस चित्रा कला में नारी सौंदर्य का चित्राण अधिक हुआ ळें
राजस्थानी शैली के कुछ प्रमुख और आधुनिक चित्राकार
# रामगोपाल विजयवर्गीय- सबसे पहले एकल चित्रा प्रदर्शनी लगाना प्रारंभ किया था। रामगोपाल विजयवर्गीय को पद्मश्री प्राप्त हो चुका है। मुख्य चित्रा- अभिसार निशा।
# गोवर्धन लाल बाबा- इन्हें भीलों का चितेरा कहा जाता है। मुख्य चित्रा- बारात।
# सौभाग्य मल गहलोत- इन्हें नीड़ का चितेरा कहा जाता है।
# परमानंद चोयल- इन्हें भैंसों का चितेरा कहा जाता है।
# जगमोहन माथोड़िया- इन्हें श्वान का चितेरा कहा जाता है।
# कुंदन लाल मिस्त्राी- इन्होंने महाराणा प्रताप के चित्रा बनाए हैं। राजा रवि वर्मा ने इनके चित्रों को देखकर ही महाराणा प्रताप का चित्रा बनाया था।
# भूर सिंह शेखावत- इनकी चित्रा कला में राजस्थानी प्रभाव अधिक है। इन्होंने क्रांतिकारियों तथा राष्ट्रभक्त नेताओं के चित्रा बनाए हैं।
# देवकी नंदन शर्मा- इन्होंने प्रकृति चित्राण अधिक किया इसलिए इन्हें ज्ीम डंेजमत व् िछंजनतम व् िस्पअपदह व्इरमबज कहा जाता है।
# ज्योति स्वरूप कच्छावा- इन्होंने प्ददमत श्रनदहसम नामक चित्रा श्रृंखला का चित्राण किया।े