आत्माभिव्यक्ति मानव की प्राकृतिक प्रवृत्ति है। अपने अंदर के भाव प्रकट किए बिना वह रह नहीं सकती और भावों का आधार होता है- मनुष्य का परिवेश। सृष्टि की उत्पत्ति के बाद से ही मानव भिन्न-भिन्न आवाजों के माध्यम से पहचानता था और अपने भावों का प्रकटीकरण करता था। यह मान्यता है कि आदिम काल में जब भाषा और लिपि चिह्नों का आविर्भाव नहीं हुआ था, तब आवाजों के बाद रेखाओं के संकेत से ही व्यक्ति स्वयं को अभिव्यक्त करता था। किसी भी वास्तविक या काल्पनिक वस्तु को मूर्त रूप में प्रस्तुत करना ही चित्राकला का उद्देश्य होता है।
चित्राकला आकृति और रंग का अद्भुत प्रदर्शन है। समस्त शिल्पों और कलाओं में प्रधान तथा सर्वप्रिय चित्राकला को ही माना गया है। यह माना जाता है कि चित्राकला भौतिक, दैविक एवं आध्यात्मिक भावना तथा सत्यम, शिवम् और सुंदरम् की समन्वित रूप की अभिव्यक्ति भी है।
मानव ने सबसे पहले अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप व स्वरूप में चित्राकला को ही चुना। आज भी गुफाओं, चट्टानों आदि में प्राप्त मानव द्वारा निर्मित प्राचीन चित्रा इस सत्य का प्रमाण हैं। चित्राकला एक ज्वलंत जिज्ञासा जो ऊर्जा से भरपूर होती है। जब अंतः चेतना जागृत होती है तो ऊर्जा जीवन को चित्राकला के रूप में उभारती है। चित्राकला ही जीवन को सत्यम् -शिवम्-सुन्दरम् से समन्वित करती है। इसके द्वारा ही बुद्धि एवं आत्मा का सत्य स्वरूप झलकता है। चित्राकला उस क्षितिज की भाँति है जिसका कोई छोर नहीं, इतनी विशाल और इतनी विस्तृत अनेक विधाओं को अपने में समेटे हुए है।
चित्राकला व्यक्ति के मन में बनी स्वार्थ, परिवार, क्षेत्रा, धर्म, भाषा और जाति आदि की सीमाएँ मिटाकर विस्तृत और व्यापकता प्रदान करती है। वह व्यक्ति को “स्व” से निकालकर “वसुधैव कुटुम्बकम” से जोड़ती है और व्यक्ति को शांति प्रदान करती है।
चित्राकला में ही मानव मन की संवेदनाएँ उभारने, प्रवृत्तियों को ढालने तथा चिंतन को मोड़ने, अभिरुचि को दिशा देने की अद्भुत क्षमता है। मनोरंजन, सौन्दर्य, प्रवाह, उल्लास न जाने कितने तत्त्वों से यह भरपूर है जिसमें मानवीयता को सम्मोहित करने की शक्ति है। यह अपना जादू तत्काल दिखाती है और व्यक्ति को बदलने में, लोहा पिघलाकर पानी बना देने वाली भट्टी की तरह मनोवृत्तियों में भारी रुपान्तरण प्रस्तुत कर सकती है।
संगीत, चित्राकला की अभिव्यक्ति के पश्चात मानव ने सुरों को पहचाना और अपनी आवाज के माध्यम से ही सुरों को साधता है और जब यह कला के रूप में उभरती है तो कलाकार गायन और वादन से स्वयं को ही नहीं श्रोताओं को भी अभिभूत कर देता है। मनुष्य आत्मविस्मृत हो उठता है। दीपक राग से दीपक जल उठता है और मल्हार राग से मेघ बरसना, यह कला की साधना का ही चरमोत्कर्ष है।
इस संगीत कला के साधने के कारण से भाट और चारण भी जब युद्ध स्थल में उमंग, जोश से सराबोर कविता गान करते थे तो वीर योद्धाओं का उत्साह दोगुना हो जाता था। संगीत केवल मानव मात्रा में ही नहीं अपितु पशु-पक्षियों व पेड़-पौधों में भी अमृत रस भर देता है। पशु-पक्षी भी संगीत से प्रभावित होकर झूम उठते हैं तो पेड़-पौधों में भी स्पन्दन हो उठता है। तरंगें फूट पड़ती हैं। यही नहीं मानव के अनेक रोगों का उपचार भी संगीत की तरंगों से सम्भव है।
चित्रा, संगीत के बाद ये ललित कलाओं में स्थान दिया गया है तो वह है नृत्य, चाहे वह भरत नाट्यम हो या कत्थक, मणिपुरी हो या कुचिपुड़ी। विभिन्न भाव-भंगिमाओं से युक्त हमारी संस्कृति व पौराणिक कथाओं को ये नृत्य जीवन्त्तता प्रदान करते हैं। शास्त्राीय नृत्य हो या लोक नृत्य इनमें खोकर तन ही नहीं मन भी झूम उठता है।
पहाड़ी शैली, तंजौर शैली, मुगल शैली, बंगाल शैली अपनी-अपनी विशेषताओं के कारण आज जन शक्ति के मन में चिन्हित हैं। यदि भारतीय संस्कृति की मूर्ति कला व शिल्प कला के दर्शन करने हों तो दक्षिण के मन्दिर अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। जहाँ के मीनाक्षी मन्दिर, वृहदीश्वर मन्दिर, कोणार्क मन्दिर अपनी अनूठी पहचान के लिए प्रसिद्ध हैं। यही नहीं भारतीय संस्कृति की खुशबू की महक आज भी अपनी प्राचीन परम्परा से समृद्ध है। लोक कलाओं का जन्म भावनाओं और परम्पराओं पर आधारित है क्योंकि यह जन सामान्य की अनुभूति की अभिव्यक्ति है। यह वर्तमान शास्त्राीय और व्यावसायिक कला की पृष्ठभूमि भी है।
भारतीय संस्कृति में धरती को विभिन्न नामों से अलंकृत किया जाता है। गुजरात में “साथिया” राजस्थान में “माण्डना”, महाराष्ट्र में “रंगोली” उत्तर प्रदेश में “चैक पूरना”, बिहार में “अहपन”, बंगाल में “अल्पना” और गढ़वाल में “आपना” के नाम से प्रसिद्ध है। यह कला धर्मानुप्रागित भावों से प्रेषित होती है जिसमें श्रद्धा से रचना की जाती है। विवाह और शुभ अवसरों पर लोक कला का विशिष्ट स्थान है। द्वारों पर अलंकृत घड़ों का रखना, उसमें जल व नारियल रखना, वन्दनवार बांधना आदि को आज के आधुनिक युग में भी इसे आदर भाव, श्रद्धा और उपासना की दृष्टि से देखा जाता है।
हमारी संस्कृति के इन तत्त्वों को प्राचीन काल से लेकर आज तक की कलाओं में देखा जा सकता है। इन्हीं ललित कलाओं ने हमारी संस्कृति को सत्य, शिव, सौन्दर्य जैसे अनेक सकारात्मक पक्षों को चित्रित किया है। इन कलाओं के माध्यम से ही हमारा लोक जीवन, लोक मानस तथा जीवन का आंतरिक और आध्यात्मिक पक्ष अभिव्यक्त होता रहा है। हमें अपनी इस परम्परा से कटना नहीं है अपितु अपनी परम्परा से ही रस लेकर आधुनिकता को चित्रित
करना है। द
- शामभवी
(कुछ इधर से कुछ उधर से)