एक दूसरे के पूरक बनें, न कि प्रतिद्वंद्वी


अध्यात्म और विज्ञान

भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में सदियों से धर्म, अध्यात्म एवं विज्ञान का गहरा संबंध रहा है। सदियों से हमारे देश में जो भी रीति-रिवाज, रहन-सहन, जीवन पद्धति के तौर-तरीके एवं परंपरायें विकसित हुई हैं, उन सबका धर्म-अध्यात्म एवं विज्ञान से गहरा संबंध रहा है। चूंकि, यह देश सदियों से ऋषियों-मुनियों एवं आध्यात्मिक मनीषियों से परिपूर्ण रहा है, ऐसे में दावे के साथ यह कहा जा सकता है जो भी परंपरायें विकसित हुई हैं उनका कुछ-न-कुछ वैज्ञानिक आधार है।

सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठना, सूर्यास्त के समय न सोना, रात में हल्का भोजन करना, सूर्योदय से एक घंटे के अंदर भगवान सूर्य को जल अर्पण करना, किस मौसम में क्या खाया जाये एवं क्या पहना जाये, मौसम के अनुसार अपने को कैसे व्यवस्थित किया जाये, ये सभी ऐसी बातें हैं जिनका विकास एक झटके में नहीं हुआ है। इस प्रकार की जीवन पद्धति के विकास मंे हमारे ऋषियों-मुनियों की जीवन रूपी प्रयोगशाला में काफी खोजबीन का आधार रहा है, मगर बदलते समय के साथ समाज आधुनिकता की आंधी में बहता गया और अब तो यहां तक हो गया कि मानव ने अपनी सुख-सुविधा के अनुरूप अपनी एक अलग तरह की जीवन शैली विकसित कर ली है किंतु उसका न तो कोई वैज्ञानिक आधार है और न ही आध्यात्मिक। शायद यही कारण है कि समाज में अधिकांश लोग अस्वस्थता का शिकार हैं। वर्तमान में यदि किसी को कोई मामूली-सी भी बीमारी हो जाये तो वह बहुत मुश्किल से ठीक हो पा रही है यानी कि वर्तमान चिकित्सा पद्धति में मामूली रोगों का भी इलाज स्थायी रूप से  संभव नहीं है।

यदि किसी भी बीमारी का स्थायी इलाज संभव है तो आर्युवेद, होम्योपैथ एवं प्राकृतिक चिकित्सा में ही संभव है। ऐलौपैथ में तो सर्जरी के अलावा किसी भी बीमारी का इलाज बहुत ही मुश्किल से संभव है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि विज्ञान अध्यात्म के अस्तित्व को लगातार चुनौती देता जा रहा है जबकि वास्तविक स्थिति यह है कि अध्यात्म को चुनौती देने की क्षमता विज्ञान में आज भी नहीं है।

आज समय की मांग है कि विश्व शांति के लिए विज्ञान को अध्यात्म की मदद करनी चाहिए न कि अध्यात्म को न मानते हुए प्रकृति को चुनौती दे। आज विज्ञान जो भी कर रहा है उससे सुलभतायें एवं सुविधायें तो विकसित हो रही हैं किंतु यह सब प्रकृति को ताक पर ही हासिल हो रहा है यानी कहा जा सकता है कि सब सुविधायंें प्रकृति के प्रतिकूल हैं। अध्यात्म विज्ञान को चुनौती देने की स्थिति में तो है किंतु विज्ञान अध्यात्म को चुनौती देने की स्थिति में नहीं है।

क्या विज्ञान दुनिया के किसी भी छोटे-से-छोटे और बड़े-से-बड़े जीव-जन्तु, कीट-पतंगों, वनस्पतियों एवं पेड़-पौधों की उत्पत्ति के बारे में रहस्योद्घाटन कर पाने में सक्षम है। शायद इसका उत्तर न में ही मिलेगा। उदाहरण के तौर पर एक ही गमले या एक ही स्थान पर चुकंदर, गाजर या अन्य तरह की सब्जियां एवं वनस्पतियां उगा दी जायें तो क्या गााजर के पौधे से चुकंदर उगेगा या चुकंदर के पौधे से गाजर उगेगा या फिर किसी अन्य पौधे से कुछ और उग सकता है। एक ही गमले में अलग-अलग वनस्पतियां लगाते समय ही लोगों को यह पता होता है कि गाजर के पौधे से गाजर ही पैदा होगा और चुकंदर के पौधे से चुकंदर ही पैदा होगा। आखिर ऐसा क्यों है? लोगों के मन में इस प्रकार का विश्वास क्यों है? ऐसा इसलिये है क्योंकि प्रकृति की प्रक्रिया को समझ पाने में मनुष्य एवं विज्ञान दोनों अक्षम हैं। गाजर की जगह गाजर ही क्यों उग रहा है? चुकंदर की जगह चुकंदर ही क्यों उग रहा है? जबकि दोनों एक ही गमले में उग रहे हैं, दोनों के लिए एक ही मिट्टी, पानी एवं जलवायु का प्रयोग हो  रहा है। गाजर का स्वाद मीठा ही होगा और दूसरी सब्जी का स्वाद उसी के अनुरूप ही होगा। कहने का आशय यही है कि किसी भी जीव-जन्तु, वनस्पति एवं अन्य प्राणी की जैसी प्रकृति है जैसा मिजाज है वैसा ही होगा किंतु ऐसा क्यों है, यह विज्ञान नहीं समझ पाया है।

आज भी हमारे वेद, पुराणों, ग्रंथों, शास्त्रों एवं प्राचीन जीवन पद्धति में जिन-जिन बातों का उल्लेख है वे सिर्फ कही-सुनी बातों एवं कपोल-कल्पनाओं पर ही आधारित नहीं हैं बल्कि उसके पीछे ठोस वैज्ञानिक सोच एवं अध्यात्म की शक्ति है। हमारे प्राचीन जीवन पद्धति की कहावतें एवं बातें जमीनी सच्चाई पर आधारित हैं। ये सब हकीकत हमारे ऋषियों-मुनियों के

द्वारा ईश्वरीय कल्पनाओं के आधार पर प्रमाणित हैं। वे सब अक्षरशः एवं पूरी तरह सत्य हैं। इन्हें नकारने एवं झुठलाने की ताकत विज्ञान में पहले भी नहीं थी और आज भी नहीं है। विज्ञान उन बातों को माने या न माने किंतु उसका कार्य उसी दिशा में अग्रसर है।

प्राचीन ग्रंथों एवं वेदों में वर्णित बातें पहले भी सत्य थीं और आज भी हैं। यह सब जानते हुए भी मानव एवं विज्ञान प्रकृति के नियमों पर न चल रहा है और न ही उसको मानने के लिए तैयार है। विज्ञान अपना वर्चस्व कायम करने के लिए सभी तरह का उपाय कर रहा है किंतु उसमें सफल नहीं हो पा रहा है। आज यदि कहा जाये कि प्रकृति के अनुकूल कार्य करना ही धर्म है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

प्रकृति के ही अनुरूप कार्य करने एवं जीवन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने से ही विश्व शांति संभव है अन्यथा विनाश को निमंत्राण देना होगा और इससे सृष्टि का समापन होगा। एक बार सृष्टि के समापन के बाद फिर पुनर्जन्म होगा और नये सिरे से सृष्टि की उत्पत्ति होगी और फिर प्रकृति की सत्ता स्थापित होगी क्योंकि संतुलन बनाना प्रकृति से बेहतर कोई नहीं जानता।

नेता जी सुभाषचंद्र बोस, टीपू सुल्तान, हिटलर, नेपोलियन, मुसोलिनी सहित तमाम ऐसी शख्सियतें देश एवं दुनिया में मानव शरीर के रूप में आयीं जिनके बारे में यह कहा जाता है कि वे मानव रूप में ईश्वरीय शक्तियां थीं जिन्होंने नकारात्मक ताकतों को समाप्त कर सकारात्मक ताकतों को स्थापित किया। बर्फबारी, अति वर्षा, सुनामी, आंधी एवं अन्य प्राकृतिक आपदायें ऐसी हैं जिनके माध्यम से प्रकृति वातावरण में संतुलन बनाने का काम करती रही है। घरों में गोबर का लेप, मिट्ठी, तांबे एवं फूल के बर्तनों का प्रयोग क्या थे यह सब कहीं न कहीं प्रकृति के अनुरूप था। आज किसी भी बीमारी में डाॅक्टर एंटीबायोटिक दवायें देते हैं किंतु भारत की प्राचीन जीवन पद्वति में तमाम ऐसी बाते हैं जो एंटीबायोटिक की ही तरह काम करती थीं। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि विज्ञान यदि अध्यात्म को प्रमाणित एवं सत्यापित करके लोगों को प्रेरित करने का कार्य करे तो उनको अपनाकर लोग तमाम परेशानियों एवं आपदाओं से छुटकारा पा सकते हैं और विज्ञान एवं अध्यात्म एक-दूसरे का पूरक भी बन सकते हैं। स्पष्ट तौर पर आज भले ही कोई यह नहीं कहना चाहता कि आज का विज्ञान विनाशकारी है किंतु लोग यह जरूर मानने लगे हैं कि आज के विज्ञान में किसी समस्या का समाधान नहीं है।

प्राचीन जीवन पद्वति में वैद्य किसी की नाड़ी पकड़कर रोग बता दिया करते थे और  देशी जड़ी-बूटियों के इलाज से लोग ठीक भी हो जाया करते थे तो क्या उस समय का इलाज विज्ञान के अनुरूप नहीं था। रामायण एवं महाभारत काल में बाणों के द्वारा वर्षा हो जाती थी एवं अन्य प्रकार की आपदायें एवं सुखद अनुभूतियां उत्पन्न हो जाती थीं तो क्या यह विज्ञान के अनुरूप नहीं था? विज्ञान की ही तरक्की के कारण आज अस्सी प्रतिशत बच्चे सिजेरियन पैदा हो रहे हैं। जिस समय विज्ञान का प्रचार-प्रसार कम था और बच्चे सिजेरियन जन्म नहीं लेते थे तो क्या उस समय विज्ञान नहीं था? प्राचीन काल में ऋषि-मुनि जानवरों एवं पशुओं की भाषा समझते थे, क्या आज यह संभव है? प्राचीन जीवन पद्धति में गंभीर से गंभीर बीमारियों का इलाज संभव था किंतु आज के विकसित विज्ञान के दौर में क्या यह संभव है?

अभी हाल में केदारनाथ में जब प्राकृतिक आपदा आई और काफी लोगों को जान गंवानी पड़ी तो यही कहा गया कि प्रकृति से छेड़छाड़ का यह नतीजा था। आज का विज्ञान बी.पी. एवं शुगर जैसी बीमारी नहीं ठीक कर पा रहा है जबकि पहले लड़ाइयों में तलवार एवं भाले जैसे गंभीर हथियारों से घायल लोग भी ठीक हो जाया करते थे, इसका सीधा-सा मतलब है कि देशी जड़ी बूटियों से बनी दवायें भी वैज्ञानिक तथ्यों पर ही आधारित थीं। आज भी बड़े-बुजुर्ग बच्चों को यही सलाह देते हैं कि  सूर्योदय से पहले बिस्तर छोड़ देना स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभकारी है और देर रात तक तक जागना स्वास्थ्य के लिए हनिकारक है। आखिर यह सब क्या है? पहले किसी को सर्दी-जुकाम एवं बुखार होता था तो कहा जाता था कि तुरंत दवा नहीं लेनी चाहिए क्योंकि इससे बीमारी दब जायेगी अर्थात बीमारी जब कुछ बाहर निकल जाये, तब दवा लेनी चाहिए। हमारी जीवन पद्धति में यदि इस प्रकार की बातें प्रचलित थीं तो निश्चित रूप से उसका कोई न कोई आधार रहा होगा।

आज का विज्ञान भी प्राचीन जीवन

पद्धति को स्वीकार करने लगा है। आज किसी के बीमार होने पर डाॅक्टर भी सलाह देने लगे हैं कि सुबह उठकर टहलना चाहिए एवं खान-पान को दुरुस्त रखना चाहिए। यानी मानव जहां से चला था, उसी रास्ते पर जाने के लिए पुनः विवश हो रहा है। अतः विज्ञान का भी यह दायित्व बनता है कि वह अध्यात्म की ताकत पहचान कर उसे अपना पूरक बनाये न कि प्रतिद्वंद्वी। इसी में सभी समस्याओं का समाधान निहित है और इसी में राष्ट्र एवं समाज का भी हित है। इसी से सब तरह की सुख-शांति भी संभव है।