हम हो गये कामयाब


ईआईटी संयुक्त प्रदेश परीक्षा 2010 में हिन्दी के युवाओं ने हिन्दी माध्यम से परीक्षा देकर जो सफलता प्राप्त की है, वह संपूर्ण देश में अलग से रेखांकित करने लायक है। यह उन मुठ्ठी-भर लोगों को करारा जवाब है, जो अंग्रेजी की वकालत करते हैं और यह कुतर्क करते हैं कि प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी के माध्यम के बिना सफलता प्राप्त करना संभव नहीं है। इस सफलता से उनका तर्क निरर्थक और अंग्रेजी प्रेम का दर्प चूर-चूर हो गया है।

हिन्दी केवल हमारे देश की राष्ट्रभाषा ही नहीं है, प्रत्युत संस्कृति भी है। हमारी सांस्कृतिक चेतना भाषा में निहित होती है। संस्कृति मानव के श्रेष्ठत्व का प्रतीक है। भाषा हमारी चेतना, हमारे विचार और हमारी दृष्टि को परिष्कृत करती है। इसलिए देश की आजादी के समय गांधी जी ने कहा था, ‘दिमागी काहिली खत्म करो, प्रांतों और दिल्ली से अंग्रेजी को निकालो, भारतीय भाषाओं का व्यवहार करो।’ उन्होंने हिन्दी को अपनाने और अंग्रेजी का परित्याग करने का नारा इसलिए दिया था कि इससे राष्ट्र का अहित होता था। उन्होंने आजादी मिलने के साथ ही अंग्रेजी के परित्याग का प्रयास शुरू कर किया। परित्याग शब्द का इस्तेमाल मैंने जान-बूझकर किया है, क्योंकि केवल उसका त्याग करना जरूरी नहीं था, बल्कि संपूर्ण रूप से उसे छोड़ना आवश्यक था। संपूर्ण रूप से त्याग ही परित्याग कहा जाएगा।

हिन्दी प्रदेश के छात्रा अब प्रशासनिक सेवा की प्रतियोगी परीक्षाओं के साथ-साथ देश के तकनीकी संस्थानों में भी हिन्दी के माध्यम से परीक्षा देकर अपनी सफलता की पताका फहरा रहे हैं। देश की आजादी के बाद हमने जो सपना देखा था वह साकार हो रहा है। हमने सपना देखा था कि गरीबों और मेहनतकश मजदूरों के बच्चे भी देश के उच्च पदों पर आसीन होंगे, क्योंकि अमीर व्यक्तियों के बच्चों के समान उनका भी समान रूप से अधिकार है। हिन्दी-प्रदेश के ये प्रतिभावान छात्रा वे ही बच्चे हो सकते हैं, जो हिन्दी माध्यम से शिक्षा ग्रहण करते हों और हिन्दी माध्यम से ही विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठते हों।

हमारी सांस्कृतिक अस्मिता को धूमिल करने की उस समय चेष्टंा की गयी जब सन 1835 में मैकाले ने अंग्रेजी के माध्यम से शिक्षा देने के लिए एक प्रारूप तैयार किया। उसके बाद थोड़ा-बहुत इस पर विवाद हुआ और अंततः अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम बन गयी। उस समय अंग्रेजी का समर्थन अंग्रेजों  के अलावा भारत के तथाकथित ‘भद्रजनों’ ने भी किया था। वे ही मुठ्ठीभर लोग आज भी अंग्रेजी का समर्थन करते हैं। लेकिन हिन्दी प्रदेश के प्रतिभाशाली बच्चों ने उनकी धारणा को चकनाचूर कर दिया है और हिन्दी के माध्यम से विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता प्राप्त कर हमारी सांस्कृतिक अस्मिता के लिए खतरनाक अंग्रेजी की चट्टान तोड़कर हिन्दी का मार्ग प्रशस्त किया है।

यह कितनी शर्म की बात है कि हमने जुबान की गुलामी स्वीकार कर ली है। अंगे्रजी की गुलामी में जो संस्कृति हमारे देश में फैलती जा रही है, क्या उस परिवेश में भावनात्मक रूप से एक होने की ऊर्जा हमें प्राप्त होगी? राजनीतिज्ञ भी दोहरी नीति अपनाते हैं। वोट मांगने के लिए तो हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को अपनाते हैं और सत्ता पर काबिज होने के  बाद अंग्रेजी से चिपक जाते हैं। हमारे देश में सांस्कृतिक विभाजन हो रहा है। उस विभाजन को निश्चय ही रोकने में सफल हुए ये मेधावी छात्रा, जिन्होंने हिन्दी माध्यम से परीक्षा देकर कामयाबी हासिल की है।

………… अमरेंद्र कुमार