सामाजिक समरसता की आड़ में समर्पण या कुछ और…


सी भी पार्टी, संगठन, संस्था या व्यक्ति की विचारधारा एवं सिद्धांत ही उसकी पूंजी होती है और इसी को केन्द्र में रखकर उसका कार्य आगे बढ़ता है। किसी दूसरे की विचारधारा के पीछे चलने के बजाय यदि अपने ही विचारों एवं सिद्धांतों को लेकर आगे बढ़ा जाये तो धीरे-धीरे लेाग उस विचार एवं सिद्धांत के साथ जुड़ते जाते हैं। वैसे भी एक पुरानी कहावत है कि ‘दुनिया है, झुकने वाली, झुकाने वाला चाहिए’ यानी यदि स्वयं अपने पर विश्वास हो तो कुछ भी असंभव नहीं है। यह सब लिखने के पीछे मेरा अभिप्राय इस बात से है कि जब भी कोई संगठन या व्यक्ति अकस्मात अपने विचारों से पीछे हटता हुआ दिखता है तो उसके समर्थकों में बहस शुरू हो जाती है और लोग यह सोचने के लिए विवश हो जाते हैं कि आखिर अपने विचारों एवं सिद्धांतों से पीछे हटने का कारण क्या है?

अभी हाल ही में इस प्रकार के कई उदाहरण देखने को मिले हैं जब अपने ही विचारों एवं सिद्धांतों से पीछे हटने का प्रकरण देखने को मिला है। इसी कड़ी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में भी यह कहा जाने लगा है कि क्या संघ भी अपने विचारों एवं सिद्धांतों में किसी प्रकार का परिवर्तन करने का इच्छुक है। राजधानी दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित सम्मेलन में संघ प्रमुख मोहन भागवत जी का संघ की विचारधारा एवं सिद्धांतों को लेकर लगातार तीन दिनों तक उद्बोधन सुनने को मिला। उनका उद्बोधन सुनकर तमाम लोग यह सोचने के लिए विवश हुए कि क्या संघ अपने विचारों एवं सिद्धांतों में किसी प्रकार का परिवर्तन करने जा रहा है या अपने मूल मुद्दों से पीछे हटने का मन बना रहा है? इस प्रकार की तमाम आशंकाएं लोगों के दिलो-दिमाग में आने लगी हैं। ऐसे में तमाम लोग यह भी सोचने लगे हैं कि क्या एक ही झटके में इतने व्यापक रूप से वैचारिक परिवर्तन संघ के स्वयं सेवक आसानी से स्वीकार कर लेंगे। इस प्रकार तमाम बंातें सामने आने लगी हैं और यह भी कहा जाने लगा है कि क्या यह सत्ता के लिए सामाजिक समरसता के नाम पर संघ का समर्पण है।

लोग यह भी कहने लगे हैं कि आखिर संघ का मूल मुद्दा क्या है? क्या संघ भाजपा पर दबाव बनाकर अपने मूल मुद्दों का निराकरण नहीं करवा सकता है? चूंकि, संघ के बहुत से आयाम हैं। उन्हीं एक आयामों में भारतीय जनता पार्टी भी है। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में एनडीए सरकारों की बात की जाये तो पहले श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार ने देश के विकास के लिए बहुत बेहतरीन कार्य किया और अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार बहुत अच्छा कार्य कर रही है किंतु इसके बावजूद लोगों के मन में यह बात आती रहती है कि आखिर उन मुद्दों का क्या होगा जो संघ एवं भाजपा के मूल मुद्दे हैं यानी अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, धारा 370, समान नागरिक संहिता, हिंदुत्व आदि। भारतीय जनता पार्टी इन मूल मुद्दों पर आगे बढ़ते हुए दिखंना तो चाहती है किंतु देशवासी उस पर कितना विश्वास कर पा रहे हैं, यह तो भविष्य पर ही निर्भर है।

ईमानदारी से यदि विश्लेषण किया जाये तो निश्चित रूप से यंह कहा जा सकता है कि वाजपेयी सरकार अपने मूल मुद्दों से पीछे हटी थी और अब मोदी सरकार पर भी इस प्रकार के आरोप लग रहे हैं। वाजपेयी जी की सरकार ने विकास के बहुत से काम किये किंतु 2004 के लोकसभा चुनाव में लोगों के दिलो-दिमाग में यह बात हावी रही कि राम मंदिर का क्या हुआ, धारा 370 का क्या हुआ? उस समय आसानी से यह भी कह दिया जाता था कि भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार गठबंधन की सरकार है, पूर्ण बहुमत वाली  सरकार नहीं है। जब अपने बूते सरकार बनेगी तो इस मामले का समाधान निकाला जायेगा। वर्तमान में तो भारतीय जनता पार्टी की वैसी स्थिति नहीं है।

विज्ञान भवन में हिन्दुत्व एवं हिन्दू धर्म की व्याख्या करते हुए संघ प्रमुख श्री मोहन भागवत ने कहा कि हिन्दू धर्म, धर्म होने के बजाय एक जीवन पद्धति है, एक संस्कृति है। अब सवाल यह है कि संघ की शाखाओं में स्वयं सेवकों के मन में जिन संस्कारों को बढ़ाया गया है, लोगों के मन में ठूंस-ठंूस कर भरा गया है, यदि उनसे विमुख होने के लिए कहा जायेगा तो क्या स्वयं सेवक उसे इतनी आसानी से स्वीकार कर लेंगे। बदली परिस्थितियों एवं विचारों को स्वयं सेवक क्या अपने में आत्मसात कर लेंगे, इस बात की क्या गारंटी है? ऐसी स्थिति में स्वयं  सेवक अपने को कहीं ठगा हुआ महसूस न करने लगें। इसे एक उदाहरण के रूप में अच्छी तरह समझा जा सकता है।

हिन्दुत्व के नायक श्री लालकृष्ण आडवाणी जी ने पाकिस्तान में जिन्ना के बारे में क्या कहा और उसे किस रूप में पेश किया गया, यह अलग बात है, किंतु उनके बदले हुए रूप को भाजपा में भी स्वीकार नहीं किया गया। आम जनता की तो बात ही अलग है। जिन्ना प्रकरण के बाद लाल कृष्ण आडवाणी जी का कद भाजपा में फिर वैसा नहीं बन पाया, जैसा पहले था। मोदी जी ने एक कार्यक्रम में टोपी नहीं नहनी तो भाजपा समर्थकों को उनका टोपी न पहनना बहुत रास आया। कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि हम क्या हैं, हमारी पहचान क्या है, उस पर अडिग रहकर ही अपने मिशन को आगे बढ़ाया जा सकता है। लव जिहाद का मामला जिस प्रकार पूरे देश में बहस का विषय बन चुका है, यदि इससे पीछे हटने की बात होने लगे तो अब पीछे हट पाना आसान ही होगा।

कहने का आशय मात्रा इतना है कि वैचारिक रूप से एक सीमा तक आगे बढ़ जाने पर उससे पीछे हटने पर तमाम तरह की दिक्कतें आती हैं। इसके बेहतरीन उदाहरण के तौर पर पाकिस्तान को भी लिया जा सकता है। पाकिस्तान में तमाम लोग और वहां के शासक यदि भारत से मधुर संबंध बनाना भी चाहें तो वे उसमें कामयाब नहीं हो सकते हैं, क्योंकि वहां आतंकी संगठन, कट्टरपंथी एवं सेना के लोग ऐसा नहीं करने देंगे, क्योंकि वैचारिक रूप से आतंकी गुट, कट्टरपंथी और सेना जिस मुकाम पर पहुंच चुकी है, उसे वैचारिक धरातल पर परिवर्तित कर पाना आसान नहीं है इसीलिए भारत से मधुर संबंधों के मामले में पाकिस्तानी शासकों के हाथ बहुत से मामलों में बंधे हुए नजर आते हैं।

अमेरिका ने अफगानिस्तान में सोवियत संघ को नीचा दिखाने के लिए आतंकियों की फौज तैयार कर उसका भरपूर उपयोग किया किंतु मतलब निकलने पर अमेरिका ने उनसे पल्ला झाड़ना चाहा तो वही आतंकी उसके लिए सिरदर्द हो गये। चूंकि, एक बार जो व्यक्ति आतंकी बन गया, उस रास्ते से पीछे हट पाना उसके लिए इतना आसान काम नहीं है। इसी प्रकार पूरी दुनिया में जिन देशों ने एक दूसरे के खिलाफ आतंकियों की फौज तैयार की और बाद में उनसे या उस विचारधारा से पल्ला झाड़ना चाहा तो ये आतंकी ही उनके लिए सिरदर्द बन गये। अतः कहा जा सकता है कि एक निश्चित मुकाम तक पहुंच जाने पर यदि थोड़ी-बहुत वैचारिक बदलाव की जरूरत पड़े तो क्रमिक रूप से यानी धीरे-धीरे करना चाहिए। किसी परिवर्तन को लोग धीरे-धीरे अपने में आत्मसात करते हैं।

हालांकि, परिवर्तन तो सृष्टि का नियम है किंतु यह परिवर्तन समय के अनुकूल क्रमिक रूप से होता है। अपने विचार एवं सिद्धांत चाहे जैसे भी हों, उस पर अडिग रहने से एक न एक दिन उससे लोग अवश्य जुड़ते हैं। वैसे भी किसी अच्छे विचार को प्रचारित करने एवं लोगों के दिलो-दिमाग में उतारने में समय तो लगता ही है। उद्देश्य यदि निःस्वार्थ एवं पवित्रा हो तो वैचारिक रूप से चरम सीमा पर पहुंच जाने के बाद परिणाम निश्चित रूप से सुखद ही आता है। इस मामले में नेता जी सुभाष चन्द्र बोस को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। नेताजी ने जो कहा, वही किया। सत्ता के आकर्षण में आकर उन्होंने कभी अपनी विचारधारा एवं सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। इसके लिए उन्होंने अपना सर्वस्व राष्ट्र के नाम पर न्यौछावर कर दिया।

भारत में कई क्षेत्रों में नक्सलवाद गंभीर समस्या बन चुका है। नक्सलवाद अपने शुरुआती दिनों में एक वैचारिक मुद्दा था। यह अन्याय, असमानता, शोषण एवं लाचारी से त्रास्त लोगों का आंदोलन था। कुछ राजनैतिक लोगों ने समय के मुताबिक इन नक्सलियों का इस्तेमाल भी किया किंतु इनका इस्तेमाल करने वालों का मकसद जब पूरा हो गया और इन्हें जब वैचारिक रूप से भटकाने की कोशिश की तो नक्सली उनका इस्तेमाल करने वालों के ही विरुद्ध खड़े हो गये क्योंकि नक्सलियों का मकसद पूरा नहीं हो पाया। जिन मुद्दों के खिलाफ नक्सलवाद का उदय हुआ, उसका समाधान तो हुआ ही नहीं। कहने का मतलब मात्रा यही है कि किसी भी मिशन को लेकर यदि आगे बढ़ा जाये तो उस पर अडिग रहते हुए तब तक चला जाये जब तक कि वह मिशन अंजाम तक न पहुंच जाये।

कभी-कभी देखने में आता है कि मजदूर या ड्रेड यूनियनें अपनी मांगों को लेकर संघर्ष करती हैं और मजदूरों के हितों की रक्षा के नाम पर उन्हें अपने साथ जोड़ती हैं। मजदूर साफ नीयत से इन यूनियनों के साथ जुड़ते हैं परंतु मजदूरों को उस समय बहुत कष्ट होता है, जब मजदूर हितों की रक्षा को पूरा हुए बिना ही मजदूर नेता लोभ-लालच में अपना ईमान बेच देते हैं। ऐसी स्थिति में मजदूर नेता तो बिक जाते हैं किंतु मजदूर अपना ईमान जिंदा रखकर बिके नेताओं का बहिस्कार कर स्वयं संघर्ष के लिए आगे आ जाते हैं। यह सब लिखने का मंतव्य एकदम साफ एवं स्पष्ट है।

किसी जमाने में कल्याण सिंह, उमा भारती, साक्षी महाराज, प्रवीण भाई तोगड़िया एवं अन्य तमाम चेहरे भाजपा एवं हिन्दुत्व के फायर ब्रांड चेहरे हुआ करते थे किंतु सत्ता में आने के बाद वैचारिक धरातल पर थोड़ा बहुत व्यावहारिक रुख अपनाया जाने लगा तो इस प्रकार के नेता लगातार हाशिये पर जाने लगे। इसका एक मात्रा कारण यह था कि ये नेता जिसके लिए जाने जाते थे, जनता उनसे उसी प्रकार के आचरण की उम्मीद करती थी। अतः बदली परिस्थितियों में ये लोग अपने को ढाल पाने में कामयाब नहीं हो पाये और इनकी प्रतिभा का पूरा लाभ राष्ट्र एवं समाज को नहीं मिल पाया।

कहने में कोई गुरेज नहीं है कि 2004 के लोकसभा चुनाव में ‘फील गुड’ एवं ‘शाइनिंग इंडिया’ का नारा पूरे देश में बहुत तेजी से गूंजा, विकास के तमाम कीर्तिमान स्थापित करने के बावजूद लोगों के दिमाग से राम मंदिर, धारा 370, समान नागरिक संहिता जैसे तमाम पारंपरिक मुद्दों को लोग भुला नहीं पाये और उसका परिणाम निराशाजनक ही रहा। मजबूत सरकार एवं मजबूत नेता के दावे को देशवासियों ने नकार कर दिया।

वर्तमान समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विकास के मुद्दे को चरम सीमा पर ले जाना चाहते हैं और चाहते हैं कि लोगों का ध्यान विकास पर केंद्रित हो जाये किंतु लोग मोदी सरकार को वैचारिक एजेंडों पर भी आगे बढ़ते हुए देखना चाहते हैं। इस प्रकार ये सारी बातें लिखने के पीछे मेरा अभिप्राय मात्रा यही है कि अपने विचारों एवं एजेन्डे को ही लेकर आगे बढ़ा जाये, उसके लिए चाहे जो भी त्याग एवं बलिदान देना पड़े। अधिक लाभ के लिए अपने विचारों एवं सिद्धांतों से किसी भी कीमत पर पीछे नहीं हटना चाहिए क्योंकि इतिहास गवाह है कि अंततोगत्वा इतिहास उसी का बनता है जो अपने मिशन को अपने विचारों एवं सिद्धांतों  के बल पर हासिल करता है। अतः अपने विचारों एवं सिद्धांतों की बलि चढ़ाकर सत्ता का आनंद लेना ठीक नहीं है इसलिए जो भी समर्पण हो वह मात्रा अपने विचारों एवं सिद्धांतों को आगे बढ़ाने के लिए।

विचारों एवं सिद्धांतों को लेकर हो सकता है कि संघ के बुद्धिजीवियों की कोई व्यापक योजना हो। जिस प्रकार 1992 में राम मंदिर आंदोलन के समय ढांचा टूट भी गया और उस योजना की किसी को भनक तक नहीं लगी। वह एक दूरदर्शी एवं कूटनीतिक योजना थी। संभवतः राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ इसी प्रकार की किसी अन्य दूरदर्शी योजना पर कार्य कर रहा हो या कुछ और, इसका निर्णय तो भविष्य पर ही छोड़ देना उचित होगा।

 

– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर)

(लेखक राम-जन्मभूमि न्यास के ट्रस्टी रहे हैं और भा.ज.पा. केन्द्रीय

कार्यालय के कार्यालय सचिव रहे हैं)