सर्व दृष्टि से ध्वस्त होता राजनीतिक चरित्रा


वर्तमान समय में राजनीतिक दृष्टि से यदि देखा जाये तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि राजनीति के लिए यह संक्रमण काल है। संक्रमण काल लिखने का मेरा आशय इस बात से बिल्कुल भी नहीं है कि राजनीति में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है बल्कि मेरा आशय इस बात से है कि राजनीति एवं राजनेताओं के जो उच्च मापदंड एवं आदर्श होते थे, उसमें दिन-प्रतिदिन क्षरण होता जा रहा है यानी राजनीति का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। जो राजनीति समाज को रास्ता दिखाती थी, वह स्वयं दिशाहीन होकर रास्ते से भटक गई है। ऐसा सिर्फ किसी एक मामले में देखने को नहीं मिल रहा है बल्कि सर्व दृष्टि से राजनीति में गिरावट देखने को मिल रही है। आखिर ऐसा क्यों है? इस पर गंभीरता से विश्लेषण कर उसके समाधान की आवश्यकता है। ‘येन-केन-प्रकारेण’ चुनाव जीतना, सत्ता प्राप्त करना या सत्ता के माध्यम से लाभ कमाना राजनीति एवं राजनेताओं का प्रमुख लक्ष्य बनता जा रहा है। हालांकि, सभी नेताओं के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है किंतु अधिकांश मामलों में ऐसा ही देखने को मिल रहा है। भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता एवं केन्द्रीय गृहमंत्री माननीय राजनाथ सिंह  जी अकसर कहा करते हैं कि हम सिर्फ सत्ता प्राप्ति के लिए राजनीति नहीं करते हैं बल्कि समाज बनाने के लिए राजनीति करते हैं। अब सवाल यह उठता है कि देश के कितने नेता इस भाव से राजनीति करते हैं?

राजनीति में क्षेत्रवाद, जातिवाद, संप्रदायवाद, भाषावाद, परिवारवाद एवं अन्य तरह की बुराइयां हावी होती जा रही हैं। इस तरह की भावनाओं को उभारकर चुनाव तो जीता जा सकता है किन्तु राष्ट्र एवं समाज का भला नहीं किया जा सकता है, यह बात सभी को पता है किंतु इसके बावजूद राजनीति उसी दिशा में बढ़ रही है। राजनीति में यह बात सभी को पता है कि मुफ्त में कुछ भी नहीं दिया जा सकता है किंतु फिर भी राजनीति में मुफ्तखोरी को बढ़ावा लगातार दिया जा रहा है। आजादी के आंदोलन के समय नेता यदि किसी के बीच जाकर कोई अपील करते थे तो जनता उस पर अमल करती थी, क्योंकि उस समय लोग नेताओं की बातों पर विश्वास करते थे और लोगों को यह विश्वास होता था कि हमारे नेता जो कुछ कह रहे हैं वह राष्ट्र एवं समाज के हित में है किंतु वर्तमान समय में नेताओं की बातों पर लोगों को यकीन ही नहीं हो रहा है।

राजनीति में यदि सेवाभाव की जगह स्वहित हावी हो जाये तो आम जनता का विश्वास स्वतः डगमगा जाता है। इसे एक उदाहरण के रूप में अच्छी तरह समझा जा सकता है। 1965 में भारत-चीन युद्ध के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने अपील की कि देशवासी यदि सप्ताह में एक वक्त उपवास रखें तो बहुत-सा अनाज एकत्रित हो जायेगा और वह अनाज सीमा पर लड़ रहे जवानों के काम आयेगा। श्री शास्त्री जी की अपील का देशवासियों पर बहुत व्यापक असर हुआ और लोगों ने उनकी अपील का अक्षरशः पालन किया। इसी प्रकार आचार्य विनोबा भावे ने भूमिहीनों को भूमि देने के लिए अधिक भूमि वालों से थोड़ी-थोड़ी भूमि दान देने की अपील की तो बहुत से लोगों ने अपनी जमीन दान में दे दी जिससे तमाम भूमिहीनों के पास भी भूमि हो गई। कहने का आशय यह है कि श्री लाल बहादुर शास्त्री एवं आचार्य विनोबा भावे की शख्सियत इतनी विश्वसनीय एवं महान थी कि जनता को उन पर पूरा विश्वास था, इसलिए उनकी अपील का देशवासियों पर व्यापक रूप से असर हुआ।

सेवाभाव, ईमानदारी एवं चरित्रा राजनीति एवं राजनेताओं की पूंजी हुआ करता था किंतु अब तो जैसे ये तीनों गुण लुप्त हो गये हैं। जिस नेता में ये तीनों गुण मिल जायेंगे, उसके बारे में कहा जायेगा कि नेता जी अपने आपको समय के मुताबिक ढाल पाने में कामयाब नहीं हो पाये हैं। समाज में एक धारणा यह भी स्थापित हो रही है कि ईमानदार सिर्फ वही है, जिसे अवसर नहीं मिला है यानी अवसर मिलने के बाद ईमानदारी की कोई गारंटी नहीं है। यदि इस प्रकार का वातावरण देश में बना हुआ है तो इसके लिए दोषी कौन है? निश्चित रूप से इसके लिए राजनीति एवं राजनेता ही दोषी हैं।

समाज की नजर में राजनीति अब व्यवसाय का रूप लेती जा रही है। ऐसे बहुत से उदाहरण देखने को मिलते भी हैं कि एक बार जब किसी को मौका मिल जा रहा है तो वह मालामाल होता जा रहा है। आखिर, यह सब क्या है? यदि लोगों के मन में इस प्रकार की भावना बलवती होती जायेगी तो भविष्य में राजनीति एवं राजनेताओं का क्या होगा?

आज देश में तमाम लोग यह कहते हुए मिल जायेंगे कि अच्छे लोगों के लिए राजनीति नहीं रह गई है। जाहिर-सी बात है कि जब अच्छे लोग राजनीति में नहीं आयेंगे तो क्या राष्ट्र एवं समाज का निर्माण बुरे लोगों के द्वारा संभव है? वर्तमान राजनीति एवं राजनेताओं की बात की जाये तो गिरगिट की तरह रंग बदलने का दौर जारी है। कौन-सा नेता मौका पाकर कहां जाकर खड़ा हो जायेगा, इस बात का कोई भरोसा नहीं है? मूल मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकाकर ऊल-जुलूल मुद्दों के जाल में उलझा देना वर्तमान राजनीति का चरित्रा बन गया है। यह काम राजनेताओं का था कि कौन-सा मुद्दा समाज एवं राष्ट्र के लिए प्राथमिकता में होना चाहिए, किंतु अब जनता को याद दिलाना पड़ता है। सत्ता पक्ष विपक्ष की बातों को झुठला रहा है तो विपक्ष सत्ता पक्ष की बातों को झुठला रहा है। विपक्ष स्वस्थ मानसिकता से सत्ता पक्ष के अच्छे कार्यों की तारीफ करने एवं स्वीकारने को तैयार नहीं होता है तो सत्ता पक्ष भी विपक्ष के वाजिब सुझावों को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है। ‘येन-केन-प्रकारेण’ अपना वजूद बनाये रखने एवं सत्ता में बने रहने के लिए शक्तियों का दुरुपयोग करना आम बात हो गई है। किसी की आवाज दबाने के लिए हर हथकंडे अपनाये जा रहे हैं। गलत को गलत और सही को सही बोलने की क्षमता राजनीति एवं राजनेताओं के दिलो-दिमाग से निरंतर लुप्त होती जा रही है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि राष्ट्रहित की बजाय स्वहित की भावना लगातार हावी होती जा रही है।

यदि देखा जाये तो सरकारें पूरे पांच वर्ष तक चुनावी मूड में ही रहती हैं। सरकारों का प्रत्येक कदम चुनावी लाभ-हानि का आंकलन करके ही आगे बढ़ता है। देश में जनसंख्या लगातार बढ़ती जा रही है, उसे नियंत्रित करने के लिए सरकारें एवं राजनेता इसलिए घबराते हैं कि उससे कहीं राजनीतिक नुकसान न हो जाये। समान नागरिक संहिता के नाम पर तमाम दलों को जब कुछ बोलना होता है तो उनके हाथ-पांव फूल जाते हैं। उनको लगता है कि यदि इस पर वे साफ-साफ बोलेंगे तो राजनीतिक रूप से नुकसान होने की संभावना है। धर्मनिरपेक्षता की आड़ में तमाम गलत कार्यों को सही ठहराने का प्रयास हो रहा है।

देश के कई राज्यों में अवैध घुसपैठियों की समस्या बहुत गंभीर है किंतु तमाम राजनेता उस पर बोलने से इसलिए कतराते हैं कि इससे धर्मनिरपेक्षता के लिए बहुत गंभीर संकट पैदा हो जायेगा, किंतु उन्हें इस बात की जरा भी परवाह नहीं है कि इससे देश की सुरक्षा का क्या होगा? अब तो यह पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है कि तमाम मामलों में अवैध घुसपैठिये देश की सुरक्षा एवं कानून व्यवस्था के लिए खतरा बने हुए हैं मगर इस समस्या के प्रति बोलने एवं कुछ कहने की क्षमता बहुत ही कम नेताओं में है। कहने का आशय यही है कि राजनैतिक रूप से जिस चूल्हे पर रोटी सेंकने से अधिक लाभ हो रहा है, उसी चूल्हे का प्रयोग किया जा रहा है। भले ही वह चूल्हा भविष्य में देश की सुरक्षा के लिए विस्फोट का कार्य कर जाये, इस बात की कोई परवाह नहीं की जा रही है।

चुनाव जीतने के लिए मुफ्तखोरी की राजनीति को खूब बढ़ावा दिया जा रहा है किंतु जब कभी कोई आपदा आती है तो मुफ्तखोरी की राजनीति करने वाले नेता अपनी भूमिका का निर्वाह करने पर नाकाम साबित हो जाते हैं और जनता को भगवान भरोसे छोड़ जाते हैं। अतः चुनाव के वक्त जनता को यह पूछना चाहिए कि किसी भी आपदा से निपटने के लिए आपने अपने घोषणा पत्रा में क्या कोई वायदा किया है? जनता जिस दिन क्षेत्रवाद, जातिवाद, संप्रदायवाद, भाषावाद एवं अन्य प्रकार की तिकड़मी राजनीति में फंसने की बजाय राजनेताओं से वास्तविक विकास की बात करने लगेगी तो राजनीतिक दल एवं नेता यह अच्छी तरह समझ जायेंगे कि अब पब्लिक को बरगलाया नहीं जा सकता है।

वर्तमान में केरल बाढ़ की विभीषिका से जूझ रहा है। यही वह उचित समय है जब वास्तविक समाजसेवियों की पहचान करके उनको राष्ट्र की मुख्यधारा की राजनीति करने के लिए प्रोत्साहित तथा अवसरवादियों को सबक सिखाया जा सकता है। आतंकवाद को भी यदि आज उदार एवं चरम के रूप में परिभाषित किया जा रहा है तो यह सब क्या है? ओसामा बिन लादेन जैसे आतंकवादी का ओसामा जी कहकर संबोधन हो सकता है तो इसे राजनीति में गिरावट की पराकाष्ठा कहा जा सकता है। हाफिज सईद जैसे आतंकवादियों का महिमामंडन यदि भारत के नेता हाफिज सईद साहब कहकर करेंगे तो उसका मनोबल बढ़ेगा ही। इस प्रकार की भाषा बोलकर मीडिया की सुर्खियां तो बटोरी जा सकती हैं किंतु इससे देश का कोई भला नहीं होने वाला है।

प्राचीन काल में राजसत्ता को नियंत्रित करने का कार्य धर्मसत्ता करती थी किंतु वर्तमान समय में धर्मसत्ता की भी विश्वसनीयता बहुत तेजी से गिरती जा रही है। अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि देश की जनता ही सभी परिस्थितियों का मूल्यांकन करे और अच्छे-बुरे की पहचान कर स्वयं निर्णय ले। तात्कालिक हितों के बजाय यह देखे कि राष्ट्र एवं समाज का हित किसमें है? क्योंकि राजनीति एवं राजनेताओं के भाग्य की कुंजी पूरी तरह देशवासियों के हाथ में है। जनता ने कुंजी यदि थोड़ी-सी भी टेढ़ी कर दी तो सभी नेता अपने आप दुरुस्त हो जायेंगे। हालांकि, पूर्ण रूप से ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है कि सभी राजनीतिक दल एवं नेता स्वार्थी प्रवृत्ति के हैं किंतु अधिकता स्वार्थी प्रवृत्ति के लोगों की ही है। अपने आप में यह भी एक अटूट सत्य है कि राजनीति यदि पाक-साफ हो जाये तो निश्चित रूप से सभी समस्याओं का समाधान हो जायेगा। उम्मीद है कि राजनीति में विश्वसनीयता के लिए जो संक्रमण काल है, वह दूर होगा और राजनीति एवं राजनेता अपने पुराने गौरव को प्राप्त करने में निश्चित रूप से कामयाब होंगे।

 

– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर)

(लेखक राम-जन्मभूमि न्यास के

ट्रस्टी रहे हैं और भा.ज.पा. केन्द्रीय

कार्यालय के कार्यालय सचिव रहे हैं)