समाज सेवा के नाम पर राजनेताओं की ड्रामेबाजी


देश में अब तो यह जग जाहिर हो चुका है कि राजनेता समाज सेवा के नाम पर ड्रामेबाजी ज्यादा करने लगे हैं। सौ रुपये का कहीं सामान बांटने जाते हैं, तो उसके प्रचार पर एक हजार रुपये खर्च करते हैं। देश में जब भी कभी आपदा आती है तो समाज सेवा के लिए तमाम समाजसेवी संस्थाएं और आम नागरिक निःसवार्थ भाव से सेवा के काम में लग जाते हैं।

समाजसेवी संस्थाओं एवं आम नागरिकों के मन में यह भाव भी नहीं होता कि सेवा के बदले उनका प्रचार हो। यानी कि ये निःस्वार्थ भाव से काम करते हैं किंतु इस समाज सेवा के काम में नेतागण ज्यों ही प्रवेश करते हैं, सेवा भाव का नजरिया ही बदल जाता है। राजनेता जितना समाज सेवा का काम करते हैं, उससे ज्यादा नौटंकी करते हैं।

नौटंकी का आशय इस बात से है कि बिना प्रचार के नेता कुछ करना ही नहीं चाहते हैं। हर सेवा के काम की फोटोग्राफी और उसका प्रचार-प्रसार उनके लिए आवश्यक होता है। वे जो भी सेवा का काम करते हैं, वे चाहते हैं कि उनका काम आम जनता के सामने दिखे। गुप्त रूप से वे कोई भी काम नहीं करना चाहते हैं।

नेता यदि किसी गरीब व्यक्ति को एक हजार रुपये की भी मदद करते हैं तो उसके पीछे उसकी मंशा यही होती है कि मदद करते हुए फोटो मीडिया में आये। यदि फोटो मीडिया में प्रकाशित नहीं हो पाती है तो नेता जी को यही लगता है कि शायद उनका मदद करने का प्रयास बेकार गया।

हालांकि, मैं ऐसा भी नहीं कहता कि सभी राजनेता ऐसा ही करते हैं। देश में अभी भी बहुत से ऐसे नेता हैं, जो समाज सेवा का काम निःस्वार्थ एवं सात्विक भावना से करते हैं। इसके बदले उनके मन में कोई लोभ या इच्छा नहीं होती किंतु महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि ऐसे नेताओं की संख्या देश में है ही कितनी?

वैसे भी आज का दौर ऐसा है कि जो अपनी मार्केटिंग जितनी अधिक कर ले जाये, उतना ही वह दिखता है। एक कहावत वर्तमान समय में बहुत प्रचलित हो रही है कि ‘जो दिखता है, वही बिकता है।’ शायद इसीलिए नेताओं का काम करते हुए दिखना बहुत जरूरी है। काम के बदले दिखने की चाहत रखने वाले नेताओं की तुलना यदि उन समाजसेवियों से की जाये, जो लाखों-करोड़ों की संपत्ति समाज सेवा के नाम पर गुप्त रूप से दान करते हैं और यह इच्छा रखते हैं कि उनके नाम की घोषणा किसी भी कीमत पर नहीं की जाये।

इन लोगों के नाम की यदि कोई घोषणा करना भी चाहता है तो उसको ये लोग मना कर देते हैं। इनके मन में सर्वदा यह भाव रहता है कि शोर मचाकर या प्रचार करके जो दान दिया जाता है, उसकी महत्ता कम हो जाती है। सेवा के बदले किसी के नाम का प्रचार किया जाये या न, किंतु यह भी एक सर्वविदित सत्य है कि दानवीरों एवं कर्मवीरों का नाम न तो दबता है और न ही छिपता है। दानवीर एवं कर्मवीर चाहे अपना नाम जितना भी छिपाने की कोशिश करें। इसके विपरीत पाखंडी लोग समाज सेवा के नाम पर चाहे जितना भी पाखंड कर लें किंतु उनकी असलियत एक न एक दिन सामने आ ही जाती है।

कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि यदि निःस्वार्थ भाव से समाज एवं लोगों का काम किया जाये तो व्यक्ति को निश्चित रूप से प्रतिष्ठा मिलती है किंतु यदि कोई यह चाहे कि पाखंड या ड्रामेबाजी करके उच्च श्रेणी का समाजसेवी बन सकता है तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं होने वाला है।

आजकल राजनैतिक दलों में वैसे भी एक कहावत बहुत तेजी से प्रचलित होती जा रही है कि ‘जंगल में मोर नाचा, किसने देखा’ यानी कि जंगल में मोर नाचा तो किंतु किसी ने देखा नहीं। इसी प्रकार अधिकांश नेताओं का यही मानना है कि जो काम किया जाये, उसका विधिवत प्रचार होना चाहिए। बिना प्रचार के किसी काम का कोई मतलब ही नहीं है जबकि वर्तमान समय में आवश्यकता इस बात की है कि जो पैसा प्रचार में खर्च होता है, उसे भी जनता पर ही खर्च किया जाये इससे आम जनता को और राहत मिलेगी।