मत्रों, कभी कबीर ने कहा था ‘माया महा ठगिनी हम जानी।’ लेकिन आज के युग मे यह राजनीति महाठगिनी है। पहले संत यही चाहते थे कि माया न उन्हें ललचाये, बल्कि उनके जो अनुयायी या भक्त हैं, उन्हें भी न छूए। लेकिन अब तो माया के चमकीले रूप में संत-महात्मा भी फंसे हैं और उनके अनुयायी तो फंसे ही हैं। वे अगर माया के चंगुल से निकल जाएं, तो संतों-महात्माओं का काम कैसे चलेगा। उन्हीें के चंदे से तो उनके धार्मिक संस्थान चलते हैं, भजन-कीर्तन होते हैं, लंगर चलते हैं। तो भाइयो, यह कबीर का युग तो रहा नहीं, जो सधुक्कड़ी भाषा में, अक्खड़ी बात करते थे, हिन्दू-मुसलमान दोनों की खबर लेते थे।
वे राजनीति नहीं करते थे। लेकिन अब तो संत-महात्मा, बाबा-धर्म गुरु सभी राजनीति करते हैं, सरकार से लड़ते हैं, लोगों को लड़ाते हैं। उन्हें लताड़ते हैं और राजनीति के रथ पर सवार होकर तीर-तलवार चलाते हैं। अब देखिये न, बाबा रामदेव राजनीति के रथ पर सवार होकर सरकार पर तीर-तलवार से वार करने लगे। उन्होंने कहा कि विदेश में जमा सारा काला धन राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर दी जाये। यह तो हुआ नहीं और जान का खतरा होने पर साधू-संतों ने उनसे प्रार्थना कर अनशन तोड़वा दिया। अनशन तोड़वाने में आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर ने भूमिका निभायी। मोरारी बापू और कई संत-महात्माओं ने मिलकर अनशन तोड़वाया। ये सब राजनीति के रूप-रस-गंध से प्रभावित हैं। राजनीति और संतों का इस कलयुग में रिश्ता प्रगाढ़ हो गया है। अब उनके एक हाथ में हरि नाम जपने की माला है, तो दूसरे हाथ में राजनीति का जाप करने वाली माला।
मित्रो, कितनी अच्छी बात है कि बाबा रामदेव ने सभी संतों की उपस्थिति में अनशन तोड़ा और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई जारी रखने का संकल्प किया। अब वे फुलटाइम राजनीति करेंगे। उनके साथ कई संत-महात्मा भी राजनीति के रथ पर सवार होकर भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध करेंगे। यह कलिकाल का प्रताप है।
राजनीतिज्ञ नहीं, संत-महात्मा राजनीति करेंगे। कुछ लोग सरकार की जयकार करेंगे और कुछ लोग सरकार के खिलाफ हल्ला बोलेंगे। अब धर्म के शक्तिपीठ से आचार्य गण राजनीति पर प्रवचन करेंगे। सरकार बनाएंगे, सरकार गिराएंगे। उनके धार्मिक पांडालों में राजनीति का सचिवालय भी होगा। ये संत-महात्मा बहुत ही अच्छे राजनेता होंगे। आप जानते ही हैं कि वही अच्छा नेता होता है जो अच्छा बोलता है, प्रभावशाली भाषण देता है। सभी संत और प्रवचनकर्ता अच्छे वक्ता होते हैं। उनकी तर्क-शक्ति और भाषण की सभी तारीफ करते हैं। वे बोलते हैं तो श्रोताओं को अपने भाव-लोक में पहुंचा देते हैं। इसीलिए संत अपनी वक्तृत्व कला पर प्रसन्न होकर राजनीति के रथ पर सवार होकर युद्ध-कौशल दिखा रहे हैं। उनके विचारोत्तेजक भाषणों से नेतागीरी की उनकी दुकानदारी चमक जाएगी, वे स्वयं सत्ता पर राजनेताओं को धकिया कर कब्जा जमा लेंगे।
यह तुलसी सूर और कबीर का तो युग है नहीं कि तुलसी राम नाम की माला जपते रहेंगे और ज्ञान का अमृत पिलाते रहेंगे। अगर कोई सत्ताधारी उन्हें सुख-सुविधा भी देना चाहेगा, तो कहेंगे ‘संतों को कहां सीकरों सों काम’ या सूरदास की तरह कृष्ण के लोकरंजक रूप को भक्ति और भाव की काव्य-भूमि पर अवतीर्ण कर ‘निसिदिन अपने नैन’ भक्ति-भाव से ओतप्रोत होकर बरसाते रहेंगे या कबीर की तरह मंदिर या मस्जिद में जा कर पाखंड करने वाले हिन्दू-मुसलमान को धिक्कारते हुए केवल राम और रहीम को सच्चे मन से भजने का उपदेश देते रहेंगे। तो संतो, आप भी तैयार रहिए और उधर हम भी तैयार हो रहे हैं ।
संतों का विचारोत्तेजक भाषण सुनने के लिए और सत्ता से कूड़े-कचरे को उठाकर फेंकने में उनका साथ देने के लिए अब ये संत कबीर बन चुके हैं। लेकिन पहले के कबीर और आज के संतों के कबीराना अंदाज में फर्क है। ओरिजनल कबीर की केवल वाचिकता की परंपरा थी, जिसमें सबके लिए फटकार थी, लेकिन इन कबीरों में वाचिकता के साथ-साथ क्रियात्मक त्वरा भी है। ये जिनके खिलाफ बोलते हैं, उन्हें सत्ता से उठाकर फेंकना भी चाहते हैं। आज के ये संत राजनीति के रथ पर सवार होकर माला भी जपते हैं और खोटा काम करने वालों पर तीर भी चलाते हैं।