मनुष्य में संस्कारों के कारण परिपक्वता आती है जिसके कारण वह सहनशील, विवेकवान, गुणवान, संयमी एवं अन्य खूबियां होने के साथ ही अत्याचार और भ्रष्टाचार जैसे मामलों में भी संघर्ष का बिगुल बजाने से नहीं चूकता, परंतु वर्तमान समय में ऐसा लगता है कि जैसे समाज में भ्रष्टाचार एवं अत्याचार, दुराचार, अनीति एवं अधर्म को अंगीकार कर लिया गया है अन्यथा आये दिन दो साल की बच्ची से लेकर अस्सी साल तक की
वृद्धा के साथ जबरन बलात्कार की कुत्सित घटनाएं देखने एवं सुनने को नहीं मिलतीं। इन सब कारणों पर विचार किया जाये तो लगता है कि समाज में जिन लोगों को अच्छा कहा या माना जाता है वे राजनीति में आना ही नहीं चाहते। जो अच्छे लोग राजनीति के माध्यम से समाज सेवा में लगे हैं उनका प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा की तरह है।
कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि राष्ट्र एवं समाज में आदर्शवादी राजनैतिक व्यक्तित्वों का अभाव है। आदर्शवादी राजनीतिज्ञों की कमी के कारण भ्रष्ट एवं आपराधिक प्रवृत्तियों का उदय बहुत तेजी से हुआ है और उनकी संख्या बहुत अधिक हो चुकी है। ताज्जुब तो इस बात का है कि इन भ्रष्ट एवं आपराधिक तत्वों को व्यापक स्तर पर शासन एवं सत्ता का संरक्षण भी मिला हुआ है। इन भ्रष्ट एवं आपराधिक शक्तियों का एक मात्रा उद्देश्य यही है कि ‘येन-केन-प्रकारेण’ अपने रुतबे और ताकत को बढ़ाया जाये। यदि समाज में ऐसे तत्वों के खिलाफ या इनके पापों के विरुद्ध आवाज उठाने की सहज प्रवृत्ति होती तो भ्रष्ट एवं आपराधिक लोगों के हौंसले इतने बुलंद नहीं होते। इसका सीधा-सा संदेश समाज में यही जाता है कि जो भी जैसा चल रहा है उसे सहज रूप में स्वीकार कर लिया जाये। ऐसे वातावारण में भ्रष्ट लोगों के हौंसले बुलंद होना स्वाभाविक है। जब समाज ही वर्तमान व्यवस्था में चुप रहना श्रेयस्कर समझने लगे तो शासकों को सचेत कैसे किया जा सकता है?
समाज का कोई भी क्षेत्र हो, चाहे राजनीतिक सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक या कोई अन्य व्यवसायीकरण की तरफ तेजी से अग्रसर हो रहा है और कहा जा सकता है कि काफी हद तक अग्रसर हो चुका है। अब हर जगह रिश्वत को सुविधा शुल्क के रूप में लिया जाने लगा है। आश्चर्य की बात तो यह है कि इस सुविधा शुल्क की न तो कोई सीमा है और न ही मापदंड। यह व्यक्ति से व्यक्ति में एक श्रृंखला की तरह बढ़ता जा रहा है, इसे इस रूप में भी देखा जा सकता है कि सख्त से सख्त कानून की अवहेलना करके सुविधा शुल्क के माध्यम से किसी काम को कैसे कराया जा सकता है या कराया जा रहा है? इसी प्रकार की प्रवृत्ति समाज में हावी हो चुकी है। ऐसे में संघर्षशीलता की बात प्रत्येक स्तर से गौण होती जा रही है।
इन्हीं परिस्थितियों के बीच सन् 2014 में राष्ट्रीय क्षितिज पर श्री नरेंद्र मोदी के रूप में एक कुशल राजनीतिज्ञ, समाज सुधारक, संवेदनशील, विवेकवान एवं अन्य गुणों से भरपूर व्यक्तित्व का उदय हुआ, जिनकी सोच एवं विचारों में सदा राष्ट्रहित ही रहा है और आज भी वे उसी रास्ते पर अग्रसर हैं। देश से भ्रष्टाचार, गंदगी, गरीबी, महंगाई, अनीति एवं अधर्म समाप्त करने के लिए श्री नरेंद्र मांदी ने जितना संघर्ष किया है, उनके प्रयासों के परिणाम स्वरूप जितनी सफलता मिलनी चाहिए थी, उतनी अभी तक मिल नहीं पाई है। श्री नरेंद्र मोदी यदि इन बुराइयों को समाप्त करना चाहते हैं तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उनमें जो संघर्षशीलता आई है, उनके संस्कारों एवं एक लंबे समय तक कार्य करने के उपरान्त आई है। वैसे भी कहा जाता है कि किसी भी सोच एवं संस्कार के पीछे एक पूूरी लम्बी प्रक्रिया होती है।
श्री नरेंद्र मोदी की इतनी मेहनत के बाद यदि उनके प्रयासों को पूरी तरह सफलता नहीं मिल पाई है तो इसका प्रमुख कारण यह है कि समाज में यथास्थिति को स्वीकार करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। इन परिस्थितियों से लोगों को उबारने एवं निजात दिलाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चिंता समय-समय पर स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
इन परिस्थितियों पर विचार किया जाये तो इसका कारण स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है कि संभवतः समाज ने न सुधरने की कसम खा ली है और यही कारण है कि न समाज में, न राजनीति में और न ही देश हित में नया नेतृत्व उभरता हुआ दिख रहा है। हर चीज मार्केटिंग, व्यवसायीकरण और कार्पोरेटाइजेशन के द्वारा प्राप्त करने की कोशिश की जा रही है और इस काम में लगी कंपनियां एवं पूरा तंत्रा सिर्फ पैसे के लोभ में भागा जा रहा है। इस भागम-भाग में किसका शोषण हो रहा है, उस बात की कोई परवाह नहीं है। राजनीतिक दल हों या किसी अन्य तरह का संगठन, कमोबेश इसी तरह की स्थिति हर जगह दिखाई दे रही है। विश्वसनीय, सुयोग्य एवं आत्मविश्वास से भरपूर सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यकर्ताओं का अभाव होता दिख रहा है। यही कारण है कि समाज के हर क्षेत्र में अवसरवादी ताकतें लगातार आगे बढ़ती जा रही हैं परंतु उनमें संघर्ष क्षमता का नितांत अभाव दिख रहा है। आज समाज में स्थिति कुछ इस प्रकार की बनती जा रही है कि पहले जो कुछ एक लंबे संघर्ष के बाद प्राप्त होता था, अब वह चापलूसी एवं गणेश परिक्रमा के
द्वारा अतिशीघ्र हासिल हो रहा है।
देश में यदि राजनीतिक दलों की बात की जाये तो थोड़े-बहुत अंतर के साथ कमोबेश सभी दलों की स्थिति एक ही जैसी दिखती है। चूंकि, आज सोशल मीडिया का दौर है और इस दौर में कुछ लोगों को लगता है कि ये चापलूसी और सोशल मीडिया के माध्यम से वह सब कुछ प्राप्त कर लेंगे, जो किसी समय एक लंबे संघर्ष के बाद प्राप्त किया जाता था। राष्ट्र एवं समाज में सबसे प्रमुख चिंता का विषय यही है कि जब तरासे हुए कार्यकर्ता नहीं होंगे तो नेतृत्व का विकास नहीं होगा। ऐसी स्थिति में नेतृत्व कौन करेगा, चाहे राजनीति हो या कोई भी सामाजिक क्षेत्र। वैसे भी एक पुरानी कहावत है कि गमले में उगे हुए लोग बहुत दुःख देते हैं यानी कि जो पौधा गमले में उगाया जाता है उसकी जड़ें बहुत गहराई तक नहीं जा पाती हैं; इसीलिए उसकी देखभाल बहुत करनी पड़ती है। इसी प्रकार जो भी नेतृत्व शार्टकट तरीके से तैयार किया जाता है उसमें परिपक्वता एवं गंभीरता नहीं आ पाती है। ऐसे में इस प्रकार के लोगों से एक परिपक्व नेतृत्व की उम्मीद नहीं की जा सकती है। परिपक्वता एवं सामाजिकता के अभाव में जो नेतृत्व उभरेगा उसमें तानाशाही पनपेगी और ऐसा नेतृत्व किसी भी स्थिति में अपनी आलोचना नहीं झेल पाता है, इसका परिणाम होता है कि तानाशाही का वातावरण बनता जाता है।
एक पुरानी कहावत है कि निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाय, यानी निंदा करने वालों को अपने घर के पास कुटी बनवाकर रखना चाहिए। निंदा करने का अभिप्राय इस बात से है कि किसी के द्वारा अपनी कमियों को कोई यदि इंगित करता रहे तो उसमें सुधार की गुंजाइश बनी रहती है। यदि कमियां बताने वाला कोई नहीं होगा तो व्यक्ति गलतियां ही करता जायेगा क्योंकि उसे यही लगेगा कि वह जो कुछ कर रहा है बिल्कुल सही कर रहा है।
समाज सेवा में भी कुछ लोगों की इच्छा यही रहती है कि सरकारी पैसा कैसे और कहां से वसूला जाये? कहने के लिए तो इस प्रकार की संस्थाएं चलाने वाले लोग यही कहते हैं कि वे पूर्ण रूप से समाज सेवा में लगे होते हैं, किंतु इसके पीछे मंशा कुछ और ही होती है। कहने का आशय यही है कि वास्तविक नेतृत्व तभी उभर सकता है जब सेवा निःस्वार्थ भाव से की जाये। सेवा में भी जब स्वार्थ का भाव छिपा होगा तो नेतृत्व भी स्वार्थ से ही प्रेरित होगा तो ऐसे नेतृत्व से समाज का कुछ भला होने वाला नहीं है।
आज समाज में तमाम लोग ऐसे हैं जिन्हें अपने आप को सही साबित करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है, पैसा खर्च करना पड़ रहा है। ऐसे में ईमानदार व्यक्ति भी फिसल जाता है और उसके मन में यह भाव पैदा हो जाता है कि जब उसे स्वयं हर जगह पैसा खर्च करना पड़ता है तो वह भी ईमानदार क्यों रहे? इस पूरे मामले में विचार किया जाये तो स्पष्ट होता है कि राजनीति ही सभी बीमारियों की जड़ है। यदि राजनीति का ही शुद्धिकरण हो जाये तो बाकी क्षेत्रा अपने आप ही ठीक हो जायेंगे। इसी बात को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था की है कि राजनीति एवं राजनीतिज्ञों से जो भी संबंधित मामले हैं उसे फास्ट ट्रैक कोर्ट में चलाकर एक साल में मामले का निस्तारण किया जाये। यदि इस पर पूरी तरह अमल हो जाये तो समाज का भी शुद्धिकरण हो जायेगा। राजनीतिज्ञों की बात की जाये तो पहले कई दलों में बूथ स्तर से राष्ट्रीय स्तर तक विधिवत चुनाव की व्यवस्था थी। इस व्यवस्था में कम से कम जिला स्तर तक नेतृत्व का विकास हो जाता था। बूथ, मंडल एवं जिला स्तर तक अपने को नेतृत्व की मुख्य धारा में लाने के लिए कार्यकर्ता जमीनी स्तर पर कार्य करते थे क्योंकि उन्हें पता था कि संगठन में यदि चुनाव के दम पर नेतृत्व हासिल करना है तो आम जनता एवं कार्यकर्ताओं के बीच रहना ही होगा किंतु वर्तमान समय में यदि कहीं कोई चुनाव की औपचारिकता है भी तो मात्रा कागजी खानापूर्ति के लिए।
वर्तमान समय में आज कार्यकर्ता अपने प्रदेश कार्यालय, राष्ट्रीय कार्यालय एवं नेताओं के इर्द-गिर्द घूमते नजर आते हैं, क्योंकि उन्हें यह अच्छी तरह पता है कि यदि वे अच्छा कार्य कर रहे हैं तो उसे स्वतः जाकर नेतृत्व से बताना भी पड़ेगा कि वे कार्य कर रहे हैं क्योंकि राजनीतिक दलों में अब ऐसा तंत्रा नहीं है जो किसी कार्यकर्ता के बारे में स्वयं पता लगा ले कि कौन कार्यकर्ता जमीनी स्तर पर क्या कर रहा है? अपने काम के बारे में बताने के लिए कार्यकर्ताओं को काफी ऊर्जा लगानी पड़ रही है, जबकि पहले ऐसा नहीं था। उदाहरण के तौर पर देखा जाये तो भाजपा एवं अन्य दलों में एक लंबे समय तक जो भी नेतृत्वकर्ता उभरे हैं वे एक लंबे संघर्ष के बाद उभरे हैं। अनुभव की भट्टी में तपकर उभरे हुए लोग थे। पहले कार्यकर्ताओं का क्रमिक विकास होता था किंतु क्या आज वैसा देखने को मिल रहा है? यदि ऐसा नहीं है तो देश के राजनीतिक दलों को इस बारे में विचार करना होगा अन्यथा वास्तविक नेतृत्व एवं वास्तविक कार्यकर्ता की पहचान करना मुश्किल हो जायेगा।
इन सबके लिए एक ही तरीका है कि समाज के किसी भी क्षेत्रा में नेतृत्व करने के लिए कठिन संघर्ष की आवश्यकता है। तरजीह उन लोगों को भी देनी होगी जो संगठन प्रक्रिया में सबसे निचले पायदान पर खड़े हैं यानी कि किसी भी भव्य इमारत की खूबसूरती एवं दीवारों की प्रशंसा के साथ उन ईंटों की भी तारीफ करनी होगी जो नींव में गुमनाम होकर अपने ऊपर पूरी बिल्डिंग का भार थाम रखी हैं। आज आवश्यकता है इस बात पर सोचने एवं अमल करने की। इसलिए यह नितांत आवश्यक हो गया है कि जो लोग समाज में संघर्ष कर रहे हैं उन्हें नेतृत्व के लिए प्रेरित एवं प्रोत्साहित किया जाये। इसके लिए बहुत व्यापक स्तर पर कार्य करने की आवश्यकता है।
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर)
(लेखक राम-जन्मभूमि न्यास के
ट्रस्टी रहे हैं और भा.ज.पा. केन्द्रीय
कार्यालय के कार्यालय सचिव रहे हैं)