विकास हो मनुष्यता का, नैतिकता का न कि भौतिकता का


संपूर्ण विश्व में प्रथम विश्व युद्ध के बाद से चहुं ओर विकास-विकास-विकास का डंका बजाया जा रहा है। कुछ देशों ने अपने आप को विकसित मानकर अन्य देशों को विकासशील या अविकसित देशों की श्रेणी में डाल दिया और अपनी विकसित योजनाओं को लेकर, विकास का नारा देकर, पूरे विश्व में इन योजनाओं को थोपने का काम किया है लेकिन किसी कीमत पर यह विषय चिंतनीय और मनन करने योग्य है।

इतिहास को उठाकर देखें तो जब भारत विश्व गुरु कहलाता था उस समय की शिक्षा पद्धति, संस्कृति और सभ्यता पूर्णतया नैतिकता पर आधारित होती थी। नैतिकता के पाठ का असर आचरण और व्यवहार में परिलक्षित और सर्वप्रिय होता था परंतु प्रथम विश्व युद्ध के बाद से ही नैतिकता का और चारित्रिक पतन शुरू हो गया क्योंकि प्रथम विश्व युद्ध के बाद जिन लोगों ने उस समय भयावह युद्ध को और युद्ध के पश्चात भयावह मंदी को झेला था उससेे नैतिकता के सब्र के बांध न सिर्फ हिल गये, बल्कि बिखर गये थे।

तत्पश्चात मनुष्य को मात्रा एक ऊंची जाति के जानवर की तरह माना जाने लगा जिसमें बड़े-बड़े और ताकतवर लोगों का कमजोर लोगों और निम्न दर्जे के लोगों को दबाने की प्रवृत्ति हावी होने लगी। इसी बीच इस विकासवाद के बहाने लोगों पर अपना वर्चस्व जमाकर एवं दिखाकर अपने प्रभाव में लेने का सिलसिला शुरू हो गया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूरी दुनिया में हालात इतने खराब हुए कि अधिकतर लोग ऊसूल और नैतिक सिद्धांतों को ताक पर रख सुख-सुविधा-विलास के पीछे भागने लगे और उन पर अमीर बनने का जुनून सवार हुआ और यहीं से विकासवाद का परचम फहराने की और नैतिकता के पतन की शुरुआत हो गयी।

भारतीय सभ्यता व संस्कृति में नैतिकता को शुरू से ही ऊच्च स्थान दिया गया है। नैतिकता हमें हर कदम पर सही-गलत के ज्ञान का आभास कराती है। नैतिकता के अभाव में व्यक्ति और समाज असंतोष, अलगाववाद, उपद्रव, आंदोलन, असमानता, असामंजस्य, अराजकता, आदर्शविहीन, अन्याय, अत्याचार, अपमान, असफलता अवसाद, अस्थिरता, अनिश्चितता, संघर्ष, हिंसा आदि में घिरकर और फंस कर रह जाता है। इसके मूल कारण में देखें तो व्यक्ति और समाज सांप्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्राीयतावाद और हिंसा की संकीर्ण भावनाओं व समस्याओं में उलझ कर रह जाता है। हालांकि, उसी समाज में विभिन्न कालों, विभिन्न परिस्थितियों और विभिन्न वातावरण में नैतिकता भी बदल जाती है और समयानुसार सुधार भी हो जाता है।

समाजिक दृष्टिकोण से नैतिकता ही धर्म की आचार संहिता है; वहीं धर्म जिसको सृष्टि रचयिता द्वारा ब्रह्मांड के प्रत्येक कण-कण में निर्धारित किया हुआ है। नैतिकता के मानदंडों से ही कानून जैसी व्यवस्था की उत्पत्ति हुई है और आज विकासवाद के नाम पर व्यक्ति कानून को तोड़-मरोड़ कर इस्तेमाल कर नैतिकता को ताक पर रख भौतिकतावादी मानसिकता को मन में संजोये हुए, उचित-अनुचित का आंकलन किये बगैर अपने आप को विकसित कहलवा रहा है मगर हकीकत में पतन की ओर जा रहा है।

धर्म मनुष्य को नैतिकता के माध्यम से समस्त प्राणियों से आचरण और व्यवहार, उचित-अनुचित का ज्ञान, कर्तव्य बोध, परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति दायित्व और अधिकार इत्यादि को नियम श्रृंखला में बांधकर मनुष्य को मानव बनने पर मजबूर करता है।

मनुष्य की आत्मा में समस्त ज्ञान चाहे वह भौतिक हो, नैतिक हो या आध्यात्मिक हो विराजित रहता है। मात्रा हमें उस आवरण को अनावरित करना है जिसको मनुष्य मनोचित आचरण करते हुए मनुष्य से मानव की ओर बनकर विकास यात्रा को शुरू करता है। नैतिकता की विशेषताः-

  1. नैतिक शिक्षा ही मनुष्य को मानव बनाती है।
  2. नैतिकता व्यक्ति के अन्तःकरण की आवाज है। यह सामाजिक व्यवहार का उचित प्रतिमान है।
  3. नैतिकता के साथ समाज की शक्ति जुड़ी होती है।
  4. नैतिकता तर्क पर आधारित है। नैतिकता का संबंध किसी अदृश्य पारलौकिक शक्ति से नहीं होता।
  5. नैतिकता परिवर्तनशील है। इसके नियम देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं।
  6. नैतिकता का संबंध समाज से है। समाज जिसे ठीक मानता है वही नैतिक है।
  7. नैतिक मूल्यों का पालन व्यक्ति स्वेच्छा से करता है। किसी ईश्वरीय शक्ति के भय से नहीं।
  8. नैतिकता व्यक्ति के कर्तव्य और आचरण से जुड़ी है।
  9. नैतिकता का आधार पवित्राता, ईमानदारी और सत्यता आदि गुण होते हैं।
  10. नैतिकता कभी-कभी धर्म के नियमों का प्रतिपादन करती प्रतीत होती है।
  11. नैतिक शिक्षा से ही सही अर्थों में राष्ट्र का निर्माण होता है।

आज नैतिकता के पतन का मूल कारण है भ्रष्टाचार और इस भ्रष्टाचार की उत्पत्ति भौतिकतावादी सुखों की प्राप्ति जल्द से जल्द हो, जैसी इच्छाओं के प्रतिपादन से होती है। जब भी हमारा समाज गलत तरीकों से ज्यादा चाहत रखने लगता है तब नैतिकता के पतन का कारण बनता है और यहीं से भ्रष्टाचार की उत्पत्ति होती है। हालांकि, हम सभी यह जानते हैं कि ‘‘समय से पहले और भाग्य से अधिक न कभी किसी को मिला है और न कभी मिलेगा।’’

आजादी के 70 वर्ष बीत जाने के बाद भी हम भारत में देख रहे हैं कि अधर्मवाद और भ्रष्टाचार की स्थिति का बद से बदतर होना और हमारी नैतिकता में कमी आने का मूल कारण इसलिए है कि हम सब अपनी खुशियां पदार्थों में ढूंढ़ने लगे हैं जबकि भारतीय संस्कृति, सभ्यता और संस्कारों में वास्तविक खुशी का संबंध, वास्तविक विकास का संबंध, वास्तविक जीवन जीने का लक्ष्य, आत्मिक शांति, आंतरिक प्रसन्नता, परिवार, समाज और राष्ट्र उत्थान से है और हमारी परंपरायें और ज्ञान स्वयं को आत्म स्वरूप महसूस करने पर बल देती रही हैं। आज अगर हम सही मायनों में विकासशील होकर विकसित होना चाहते हैं और पुनः विश्व गुरु का स्थान पाना चाहते हैं तो हमें अपने भौतिकतावादी विकास को एक तरफ रखकर नैतिकतावादी और आध्यात्मिक विकास की ओर अग्रसर होना होगा इसके लिए नये सिरे से विचार कर नयी शिक्षा प्रणाली इत्यादि लाकर नये भारत की कल्पना को साकार करना होगा।

 

– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर)

(लेखक राम-जन्मभूमि न्यास के

ट्रस्टी रहे हैं और भा.ज.पा. केन्द्रीय

कार्यालय के कार्यालय सचिव रहे हैं)