संत पंचमी धरती के श्रृंगार का पर्व है-प्रकृति उस समय मादक, मदिर और मधुर लगती हे। कलियों के गहनों से लदी, रूखी डालों में भी नयी कोंपलें, शाखाएं वसन से सुशोभित! ….. और उसी समय याद आती है निराला की यह पंक्ति ‘रूख री यह डाल, वसन वासंती लेगी!’ निराला सरस्वती के वरद पुत्र थे। उनकी कविताएं वीणा की मधुर झंकार हैं, जिसके स्वर में नव लय, नव गति है, नया ताल और नया छंद है। उसी समय मां सरस्वती की भी पूजा-अर्चना होती है। उसी दिन से अबीर-गुलाल के बादल उड़ने लगते हैं। उस समय निराला मुझे याद आते हैं। क्योंकि निराला का वह जन्मदिन है।
निराला- जिनका तन-मन निराला था, जिनका रंग-ढंग निराला था। वे हर रूप में निराला थे। इसीलिए कविता के छंदों के बंधन से मुक्त कर मुक्त छंद का हिन्दी-कविता में प्रयोग किया। लोगों ने उस समय निराला का विरोध भी किया कि कविता छंद से मुक्त कैसे हो सकती है। लेकिन छंद से मुक्त होने पर कविता में नयी गति आयी, नयी लयाात्मकता आयी, नया सतेज प्रवाह आया! परंपरावादी हमेशा प्रयोग को नकारते हैं। लेकिन प्रयोग जब अपना नया प्रतिमान स्थापित करता है तो वह सहज स्वीकार्य हो जाता है। उन्होंने छंद को मुक्त किया, लेकिन कविता की लयात्मकता, भावात्मकता और गत्यात्मकता हमेशा कायम रखी। उसकी गत्यात्मकता और लयात्मकता का एक उदाहरण प्रस्तुत है-
निर्दय उस नायक ने निपट निठुराई की
कि झोंकों की झाड़ियों से सुंदर सुकुमार देह
सारी झकझोर डाली!
इसी तरह एक उदाहरण के अनुसार उसकी उदासी में इसी लयात्मकता और गत्यात्मकता के रूप में देखी जा सकती है-
मैं अकेला/आ रही मेरे दिवस की
सांध्य-वेला
पके आधे बाल मेरे/हुए निष्प्रभ गाल मेरे
चाल मेरी मंद होती जा रही है
हट रहा मेला!
मैं अकेला, आ रही मेरे दिवस की …..!
निराला के वैचारिक औदात्य, भाव-माधुर्य और बिम्ब-विधान की समृद्धि के लिए मैंने उपर्युक्त पंक्तियों को उद्धृत किया। इन पंक्तियों के माध्यम से मैं रूपांतर से यह कहना चाहता हूं कि निराला आज भी इसीलिए प्रासंगिक और पढ़े जाने वाले कवि हैं, क्योंकि अगर उन्होंने एक ओर जिंदगी के दर्दीले यथार्थ का चित्रण किया है, तो दूसरी और हटके बिम्ब-विधान से हिन्दी-काव्य को समृद्ध भी किया है। ये दोनों ही चीजें हमारे मन को छू लेती हैं। यद्यपि निराला ने अपने जीवन की व्यथा, पीड़ा, कसक और टीस की अभिव्यक्ति ‘मै अकेला! आ रही मेरे जीवन की सांध्य बेला’ वाली कविता में की है, लेकिन उसमें उनकी सूक्ष्म-तरल संवेदना से मन की परतें स्पंदित होती हैं और उससे पाठक को कविता का आनंद मिलता है। उनका जन्म वसंत पंचमी को हुआ था, इसीलिए लगता है कि कहीं-न-कहीं उनकी वाणी को सरस्वती का वरदान मिला था। निराला की कविता में उनके उत्कर्ष भाव-बोध और उनके ताजे बिम्ब-विधान का मूल्यांकन करना मेरा उद्देश्य नहीं है, प्रत्युत मैं यह संप्रेषित करना चाहता हूं कि निराला आज भी प्रासंगिक और कवियों के लिए प्रेरणा-स्रोत हैं।
आज कवियों की कविताओं में काव्येतर प्रयोजन साफ तौर पर देखे जा सकते हैं, इसलिए आज की कविताएं साहित्य और जीवन के हाशिये पर चली गयी हैं। उनमें सुमित्रानंदन पंत, माखनलाल चतुर्वेदी, दिनकर, धूमिल, मुक्तिबोध आदि की तरह जीवन-बोध नहीं है, इसीलिए उनका रसात्मक बोध भी समाप्त हो गया। अज्ञेय ने कहा था कि बड़ा कवि वाक्सिद्ध होता था, और बड़ा कवि रस सिद्ध होता था। निराला भी बड़े कवि थे। वे ‘वाक्सिद्ध’ भी थे और ‘रससिद्ध’ भी थे। वसंत पंचमी को महाकवि निराला की जयंती है…. तो उस अवसर पर मां भारती को भी मेरा नमन और मां भारती की आरती उतारने वाले महाकवि निराला को भी श्रद्धा-सुमन!
अमरेंद्र कुमार