आम तौर पर हिन्दुस्तान में सभी दल एवं राजनैतिक अकसर कहा करते हैं कि व्यक्ति से बड़ा दल है और दल से बड़ा देश यानी देशहित सर्वोच्च है। यदि आम जनमानस से लेकर देश के बड़े से बड़े व्यक्ति के मन में राष्ट्रहित ही यदि प्राथमिकता में हो तो बड़ी से बड़ी समस्या एवं आपदा का मुकाबला हंसते-हंसते बहुत आसानी से किया जा सकता है किंतु यदि राष्ट्रहित की जगह स्वहित को महत्व मिलने लगे तो समस्या जटिल होने लगती है। अपने देश भारत की यदि बात की जाये तो तमाम अवसरों पर ऐसा देखने को मिलता है कि राजनैतिक दलों एवं राजनैतिक लोगों का आचरण स्वहित की तरफ अग्रसर दिखता है। मेरे कहने का अभिप्राय यह कतई नहीं है कि कुछ लोगों में राष्ट्र के प्रति प्रेम कम हो रहा है। बात सिर्फ इतनी है कि यदि राष्ट्रहित की कीमत पर कोई राजनैतिक लाभ मिल रहा हो तो उसे अस्वीकार कर देना चाहिए। देश के अंदर जब कोई आतंकी घटना होती है तो उस घटना में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मदद करने वाले अपने देश के ही होते हैं जबकि ऐसे लोग इस बात पर ध्यान नहीं देते कि जब देश ही सुरक्षित नहीं होगा तो ये लोग कैसे सुरक्षित रह सकते हैं?
राजनैतिक दलों एवं राजनैतिक लोगों की बार-बार चर्चा इसलिए कर रहा हूं कि दलों एवं राजनैतिक व्यक्तियों पर देश को संचालित करने की जिम्मेदारी है। निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जैसा नेतृत्व होगा, उसी प्रकार सामाजिक संरचना का भी निर्माण होगा इसलिए नेतृत्व ऐसा हो जिस पर आम लोग जरा भी शक न कर सकें। देश का नेतृत्व यदि राष्ट्र के प्रति समर्पित, वफादार एवं ईमानदार होगा तो देशवासी भी उसी का अनुसरण करेंगे।
अपने देश में प्राचीन काल से ही एक कहावत प्रचलित है कि ‘जैसा राजा-वैसी प्रजा’ किंतु अफसोस के साथ लिखना पड़ रहा है कि सभी राजनैतिक लोगों का आचरण ऐसा नहीं है कि उससे देशवासी प्रेरित हो सकें। आज हिन्दुस्तान की राजनीति में जातिवाद, क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद, भाषावाद सहित तमाम तरह के वाद देखने को मिल रहे हैं। अंग्रेजों की गुलामी के दौरान देश के अनगिनत लोगों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर किया और प्राणों की बाजी लगाई, तब जाकर देश को आजादी मिली। सरदार भगत सिंह ने अपना बलिदान सिर्फ पंजाब के लिए नहीं दिया। चंद्रशेखर आजाद एवं तमाम क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की बाजी सिर्फ अपने क्षेत्र के लिए ही नहीं लगाई बल्कि उनकी रगों में जो खून था, वह पूरे देश की आजादी के लिए उबला था। भारत भूमि की आत्मा में तो वैसे भी ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना निहित है यानी भारत में ‘विश्व कल्याण’ की बात की जाती है यानी सदियों से ही यह बात जग-जाहिर है कि भारत की आत्मा में पूरे विश्व के कल्याण की भावना निहित है। इसी भावना की वजह से ही भारत को विश्व गुरु का रुतबा हासिल रहा है। आज भी भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पुनः विश्व गुरू बनने के लिए लगातार प्रयास कर रहा है। यह सब लिखने का आशय यह है कि जिस भारत में पूरे विश्व के कल्याण की बात होती थी, आज उसी भारत में क्षेत्रवाद, जातिवाद भाषावाद, संप्रदायवाद एवं अन्य वादों की इंतहा हो चुकी है तो उसके क्या कारण हैं? इस दृष्टि से यदि देखा जाय तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इन सब वादों के लिए हमारे नेता एवं राजनैतिक दल जिम्मेदार हैं। ‘येन-केन-प्रकारेण’ चुनाव जीतने के लिए हमारे नेता कुछ भी करने को तैयार हैं, किंतु वे यह नहीं सोचते कि उनके किस काम में राष्ट्रहित अधिक है तो किसमें स्वहित? अपने देश में तमाम क्षेत्रीय दल ऐसे हैं जो अपने स्थानीय हितों की ही बात करते हैं। आजादी के बाद ऐसा नहीं है कि हमारे देश में ऐसे उदाहरण नहीं हैं जिनसे हम प्रेरणा ले सकें। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने राष्ट्रहित के लिए अपना बलिदान कर दिया। पं. दीन दयाल उपाध्याय उत्तर प्रदेश के जौनपुर से लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे तो कुछ लोगों ने उन्हें सलाह दी कि यदि थोड़ा जातिवाद को हवा दे दी जाये तो चुनाव आसानी से जीता जा सकता है किंतु पंडित जी ने चुनाव जीतने के लिए जातिवाद का जहर और अधिक बढ़ाने से बिल्कुल इनकार कर दिया, जिसका परिणाम यह रहा कि वे चुनाव हार गये। आजाद भारत में ऐसे कई नेता हुए जो अपने प्रदेश के बजाय अन्य प्रदेशों में जाकर राजनीति की किंतु उनके ऊपर कभी किसी ने कोई शक नहीं किया। जार्ज फर्नाडिज ने तो क्रिस्चियन होते हुए भी महाराष्ट्र एवं बिहार जैसे राज्य से राजनीति कर राष्ट्रवाद की अलख जगायी। भारत रत्न से अलंकृत राष्ट्रऋषि स्व. नानाजी देशमुख ने महाराष्ट्र के बजाय उत्तर प्रदेश को अपनी कर्मभूमि बनाकर राष्ट्रवाद की अलख जगाई। इस प्रकार के तमाम ऐसे उदाहरण देखने को मिलेंगे जिससे राष्ट्रहित की भावना को मजबूत करने का काम देखने को मिला है किंतु आज की राजनीति क्षेत्रवाद, जातिवाद, संप्रदायवाद सहित तमाम वादों को पार करते हुए ‘गोत्रावाद’ तक पहुंच गई है। आखिर यह सब क्या है? इससे साफ जाहिर होता है कि चुनावी सफलता ही मुख्य मकसद रह गया है। इस चुनावी सफलता के हित में भले ही राष्ट्र का नुकसान होता रहे।
आज देश में अवैध घुसपैठियों को बाहर निकालने के लिए कोई सख्त नीति बनाने की बात होती है तो उनके पक्ष में तमाम राजनैतिक हस्तियां खड़ी हो जाती हैं जबकि वे इस बात की परवाह नहीं करतीं कि इन घुसपैठियों की वजह से कितना नुकसान हो रहा है किंतु राष्ट्रहित के बजाय वोट की राजनीति भारी पड़ रही है। अवैध रूप से देश में रह रहे लोगों को चिन्हित करने के लिए किसी तरह का रजिस्टर तैयार करने का भी विरोध हो रहा है। आखिर यह सब क्या हो रहा है? मेरा कहने का आशय यह बिल्कुल भी नहीं है कि अपने देश में स्वहित ज्यादा हावी हो रहा है और ‘देश भक्ति’ की डोर कमजोर हो रही है किंतु इजराईल, जापान, अमेरिका, ब्रिटेन, स्विटजरलैंड, चीन, रूस एवं अन्य देशों से अपनी तुलना करें तो निश्चित रूप में हम ‘राष्ट्रहित’ के मामले में अपने को कमजोर पाते हैं। कहा जाता है कि इजराईल का यदि एक सैनिक मार दिया जाता है तो वह दुश्मन देश के दस सैनिकों को मार कर वह अपने देश के लोगों और सैनिकों का मनोबल बढ़ाता है। अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में घुसकर मारा। जापान में यदि कोई आपदा आती है तो वहां के निवासी अपने देश की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ करने के लिए अपनी ड्यूटी से अलग ‘ओवर टाइम’ करके देश को अपना सहयोग देते है किंतु भारत में सर्जिकल स्ट्राईक पर प्रश्न चिन्ह लगाकर दुश्मनों का मनोबल बढ़ाने का काम किया जाता है। स्विटजरलैंड के लोग सरकार से मुफ्त में कुछ भी खैरात के रूप में लेना बिल्कुल भी पसंद नहीं करते हैं किंतु अपने देश में ‘मुफ्तखोरी’ की आदत डाली जा रही है। लोगों को आत्म-निर्भर बनाने की बजाय कुछ राहत बांटकर पराश्रित बनाने का काम किया जा रहा है जबकि सभी को पता है कि इससे राष्ट्र का स्थायी रूप से भला नहीं हो सकता है। किसी भी समस्या का जब तक स्थायी समाधान न हो, तब तक समस्या उसी रूप में पड़ी रहती है यानी समस्या को समस्या बनाये रखना ही भारतीय राजनीति की फितरत में शामिल होता जा रहा है। ‘मुफ्तखेरी’ एवं ‘सब्सिडी’ के माध्यम से देश का स्थायी विकास नहीं हो सकता है। इससे चुनाव तो जीता जा सकता है किंतु राष्ट्र की बुनियाद मजबूत नहीं हो सकती है। राष्ट्र की बुनियाद मजबूत करने के लिए ऐसे कार्य करने होंगे जिसमें सिर्फ राष्ट्रहित की भावना हो न कि स्वहित छिपा हो। राष्ट्र के विकास के लिए आवश्यकता इस बात की है कि कृषि को प्रोत्साहित किया जाये और उसे प्रमुखता से स्थापित किया जाये, ग्रामीण एवं लघु कुटीर उद्योगों को बढ़ावा दिया जाये, प्राचीन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को और मजबूत किया जाये, आयुर्वेद एवं प्राचीन चिकित्सा पद्धति को और अधिक प्रोत्साहित किया जाये, मूल्य आधारित शिक्षा की तरफ और अधिक अग्रसर हुआ जाये, शासन-प्रशासन को सिर्फ औपचारिक होने के बजाय इंसानियत एवं मानवता के आधार पर संवेदनशील बनाया जाये, नीतियां पर्यावरण के अनुकूल बनें, अपनी धरोहरों की रक्षा की जाये, विदेशी वस्तुओं की बजाय स्वदेशी को प्रोत्साहन देने का काम किया जाये। शासन-प्रशासन, सामाजिक, राजनैतिक एवं हर स्तर पर ऐसे कार्य किये जायें जिससे लोगों में ‘स्वहित’ की बजाय ‘राष्ट्रहित’ के प्रति जुनून पैदा हो। लोगों में ऐसा ‘जुनून’ पैदा करने की आवश्यकता है जिससे लोग भूखे रहना पसंद करें किंतु ‘राष्ट्रहित’ के खिलाफ कुछ करने को तैयार न हों।
इतिहास गवाह है कि जब-जब राजनीति का स्तर गिरता है, आम लोग भी उसी दिशा में अग्रसर होने लगते हैं। आजादी के बाद यदि कोई जन-प्रतिनिधि किसी गांव एवं मोहल्ले में कोई स्कूल, अस्पताल, सड़क एवं पुल बनवा देता था तो लोग उसे मुद्दत तक याद रखते थे किंतु आज लोग जन-प्रतिनिधियों से यह उम्मीद करने लगे हैं कि जन-प्रतिनिधि उनके यहां शादी, पूजा-पाठ, जन्म दिन, सालगिरह एवं अन्य पारिवारिक कार्यक्रमों में शरीक हों। जिनके यहां जन-प्रतिनिधि ऐसे कार्यक्रमों में जाते हैं उनका सामाजिक रुतबा बढ़ जाता है। अपना सामाजिक रुतबा बढ़ाने के फेर में कभी-कभी लोग यह भी भूल जाते हैं कि वास्तव में उन्हें अपने जन-प्रतिनिधयों से करवाना क्या था? यानी सामाजिक कार्यों के बजाय जन-प्रतिनिधि की व्यक्तिगत उपस्थिति लोग ज्यादा पसंद करने लगे हैं जबकि यह कटु सत्य है कि लोग जन-प्रतिनिधियों, राजनीतिज्ञों एवं समाजसेवियों से व्यक्तिगत उपस्थिति के बदले सड़क, पुल, स्कूल, अस्पताल, खेल के मैदान एवं इस तरह के अन्य कार्यों की मांग करें तो ज्यादा बेहतर होगा। राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन में आज एक बात बहुत तेजी से प्रचलित होती जा रही है कि काम कम करो या अधिक इससे कोई फर्क नहीं पड़ता किंतु जगह-जगह व्यक्तिगत रूप से पहुंचते रहो यानी चेहरा दिखाने की राजनीति सिर चढ़कर बोल रही है।
अपने आप में यह पूर्ण रूप से सत्य है कि कोई जन-प्रतिनिधि एवं समाजसेवी चाहकर भी सब जगह उपस्थित नहीं हो सकता है किंतु उसके प्रयास से बना स्कूल, अस्पताल, पुल, सड़क एवं अन्य बुनियादी कार्य मुद्दत तक पड़ा रहता है। संभवतः यही कारण है कि राजनेताओं एवं समाजसेवियों का कद बहुत छोटा होता जा रहा है और लोग पद से हटते ही भुलाये जा रहे हैं। पहले के समय में यदि किसी के परिवार में कोई ‘मुखिया’ एवं ‘सरपंच’ बन जाता था तो मुद्दत तक उस परिवार को ‘मुखिया जी’ या ‘सरपंच जी’ का परिवार कहा जाता था। आखिर ऐसा क्यों है, इस संबंध में सभी को गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि राष्ट्ररूपी ‘वृक्ष’ को पुष्पित-पल्लवित करने का कार्य किया जाये। ‘वृक्ष’ यदि हरा-भरा होगा तो उसकी छाया में बैठकर शुकून मिलेगा। यदि ‘वृक्ष’ में फल लगेगा तभी उसका आनंद लिया जा सकता है। इसका मतलब स्पष्ट है कि यदि राष्ट्र मजबूत एवं आर्थिक रूप से संपन्न होगा, तभी प्रत्येक देशवासी सुख एवं चैन से रह सकेगा। इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि जीवन के हर कदम पर ‘स्वहित’ की बजाय ‘राष्ट्र हित’ की बात हो। इसी में राष्ट्र एवं समाज सभी का कल्याण है। सीरिया, अफगानिस्तान जैसे देशों का उदाहरण हमारे सामने है। वहां के लोग अपने आपको कितना सुरक्षित समझते हैं? वहां के लोगों का जीवन कितना खौफ और अनिश्चितता के वातावरण में व्यतीत होता है भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान को ही यदि उदाहरण के रूप में लिया जाये तो यही कहा जा सकता है कि पाकिस्तान को यदि विदेशी मदद मिलनी बंद हो जाये तो क्या हाल होगा, इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है। तो आइये, हम सभी संकल्प लें कि अपने जीवन में हर वह कार्य करेंगे जिसमें अपने हितों के साथ राष्ट्रहित की भावना अधिक हो।
अरूण कुमार जैन (इंजीनियर)
(लेखक राम-जन्मभूमि न्यास के
ट्रस्टी रहे हैं और भा.ज.पा. केन्द्रीय
कार्यालय के कार्यालय सचिव रहे हैं)