अभी हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्रा श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए ने बहुत ही शानदार कामयाबी हासिल की है। चुनाव विश्लेषक अपने-अपने हिसाब से चुनाव परिणाम की व्याख्या कर रहे हैं। तमाम विश्लेषक इस बात की चर्चा कर रहे हैं कि जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद और संप्रदायवाद दम तोड़ रहा है। उत्तर प्रदेश एवं बिहार जैसे राज्य में गठबंधन की धज्जियां उड़ गईं। भारतीय जनता पार्टी एवं एनडीए के सहयोगी दलों ने इन दोनों राज्यों में जबर्दस्त कामयाबी हासिल की। चूंकि, भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में एनडीए को जबर्दस्त सफलता मिली है तो तमाम तरह से इसकी व्याख्या होना लाजिमी है। वैसे भी जीत के अनेक कारण होते हैं जबकि हार अनाथ होती है।
वैसे यदि विस्तार से चुनाव परिणामों का विश्लेषण किया जाये तो क्या यह कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीति की यह आदर्श स्थिति है? इस विषय पर चर्चा करने की विशेष आवश्यकता है। 23 मई को हैदराबाद से सांसद एवं मुस्लिम नेता आवैसी ने कहा कि हिन्दू अब वोटबैंक बन चुके हैं। जनाब आवैसी की बात पर गंभीरता से विचार किया जाये तो क्या हिन्दुओं के वोटबैंक में तब्दील होने में आवैसी जैसे नेताओं की कोई भूमिका नहीं है? हिन्दुस्तान की राजनीति में अभी तक आम धारणा यह बनी हुई है कि मुस्लिम सिर्फ उस पार्टी या प्रत्याशी को ही वोट देते हैं जो भारतीय जनता पार्टी को हराने की स्थिति में होते हैं। इस सोच की वजह से मुस्लिम मतदाता अलग-अलग सीटों पर अलग तरह का समीकरण बनाते हैं।
आखिर देश में इस तरह की स्थिति किसने निर्मित की? किसके इशारों पर मुस्लिम वोटबैंक बने? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद के सेंट्रल हॉल में यह कहा भी कि मुस्लिमों को छलावे में रखा गया। भय दिखाया गया, उन्हें सिर्फ वोटबैंक के रूप में इस्तेमाल किया गया। प्रधानमंत्री ने स्पष्ट रूप से कहा कि अच्छा होता कि मुसलमानों के विकास पर ध्यान दिया गया होता, उनकी शिक्षा पर जोर दिया गया होता किन्तु ऐसा न करके मुस्लिमों को छल, छलावे एवं भ्रम में रखा गया। इसमें मुस्लिम समाज के बुद्धिजीवियों एवं धर्मगुरुओं की भी भूमिका रही है क्योंकि उनका यह कर्तव्य बनता है कि इस बात की पड़ताल करें कि किस सरकार ने मुस्लिम समाज के लिए क्या किया किंतु उन्होंने ऐसा करने के बजाय अधिकांश मामलों में सिर्फ भाजपा के विरोध में फतवा जारी करने का कार्य किया जबकि उन्हें निष्पक्ष रूप से भारतीय जनता पार्टी को समझने का प्रयास करना चाहिए था।
2014 में बनी एनडीए सरकार ने कोई भी ऐसा कार्य नहीं किया जिसमें भेदभाव किया हो। कश्मीर में जब बाढ़ आई तो प्रधानमंत्री ने पूरा तंत्र झोंक दिया था वहां राहत कार्यों के लिए। इसी प्रकार की स्थिति केरल में भी देखने को मिली थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो अपने स्तर से राजधर्म का पूरी तरह पालन किया किंतु यह भी अपने आप में सत्य है कि ‘ताली एक हाथ से नहीं बजती है।’ इसके लिए दोनों हाथों का आगे बढ़ना जरूरी होता है। कश्मीर में तो एकाध जगह ऐसा भी देखने को मिला कि जिन लोगों को सेना के जवानों ने अपनी जान की बाजी लगाकर बाढ़ से बचाया, जवानों पर उन्हीं लोगों ने पत्थर भी फेंका। आखिर यह सब क्या है? देश में इस प्रकार की अवधारणा कैसे बनी कि जहां मुस्लिम समाज के लोग ज्यादा हैं वहां भारतीय जनता पार्टी की हार की गारंटी है।
यह सब लिखने का आशय मेरा इस बात से है कि किसी भी मामले में स्वस्थ एवं निष्पक्ष बहस होनी चाहिए। आज एक सवाल बार-बार सामने आता है कि भाजपा और शिवसेना को छोड़कर यदि सभी दल धर्मनिरपेक्ष हैं तो कश्मीर घाटी से हिन्दुओं का पलायन क्यों हुआ और उन्हें मौत के घाट क्यों उतारा गया, उनकी बहन-बेटियों की आबरू क्यों लूटी गई? आखिर यह सब कौन से इंसानियत के दायरे में आता है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्पष्ट रूप से कहा है कि धर्मनिरपेक्षता को यदि सबसे अधिक कहीं नुकसान पहुंचा है तो वह कश्मीर है। कोई भी धर्म कभी इस बात की इजाजत नहीं देता कि किसी अन्य धर्म के लोगों को सताया या परेशान किया जाये या फिर मौत के घाट उतारा जाये।
इस चुनाव में यह बात स्पष्ट रूप से देखने को मिल रही है कि देशवासियों ने जाति, धर्म एवं अन्य वादों से ऊपर उठकर वोट दिया है। लोगों ने आतंकवाद एवं नक्सलवाद के खिलाफ वोट किया, लोगों ने उज्जवल भारत के निर्माण के लिए वोट किया है। आज इस बात का कई लोग आरोप लगा रहे हैं कि भारतीय जनता पार्टी ने हिन्दू वोटों का धु्रवीकरण किया है किंतु क्या तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों एवं लोगों ने अपनी धर्मनिरपेक्षता का सही तरह से मूल्यांकन किया है।
तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग वास्तव में सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष होते तो उन्हें आज इस प्रकार के वक्तव्य देने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। मेरा तो स्पष्ट रूप से मानना है कि बहुत सारे मामलों में देश सही दिशा में जा रहा है किंतु आदर्श स्थिति आनी अभी बाकी है। आदर्श स्थिति तो तब आयेगी जब हैदराबाद की मुस्लिम बहुल सीट पर ओवैसी की बजाय किसी अन्य धर्म का व्यक्ति सांसद बनेगा, किसी हिन्दू बहुल सीट पर हिन्दू के बजाय अन्य धर्म का व्यक्ति चुनाव जीतेगा।
क्या हम इस बात की कल्पना कर सकते हैं कि कश्मीर की तीनों लोकसभा सीटों पर मुस्लिम की बजाय किसी अन्य मजहब का व्यक्ति जन-प्रतिनिधि चुना जायेगा। बिहार की किशनगंज लोकसभा सीट से कोई मुसलमान ही चुनाव जीतेगा, इस बात की चर्चा क्यों होती है? भारत में कलाम जी राष्ट्रपति बन गये, क्या पाकिस्तान में इस बात की कल्पना की जा सकती है कि वहां किसी अन्य धर्म का व्यक्ति राष्ट्रपति बन सकता है?
देश में आदर्श स्थिति तो तब आयेगी जब अयोध्या एवं मथुरा जैसी सीट पर किसी हिन्दू के बजाय किसी अन्य मजहब का भी व्यक्ति चुनाव जीतेगा, तभी सही अर्थों में कहा जा सकेगा कि देश वास्तविक रूप में धर्मनिरपेक्ष बन चुका है। देश के संसाधनों पर मुसलमानों का सबसे पहले अधिकार है, इस प्रकार की भाषा बोलने या कार्य करने से न तो देश धर्मनिरपेक्ष बन सकता है, न ही आदर्श स्थिति आ सकती है। इस दृष्टि से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ठीक ही कहा है कि ‘सबका साथ-सबका विकास’ और सबका विश्वास के रास्ते पर चलना है।
यदि हिन्दू बहुल राज्यों में मुस्लिम सुख-शांति एवं अमन-चैन से रह रहे हैं तो कश्मीर में भी इस प्रकार की मिसाल पेश करनी होगी। सिर्फ यह कहने से बात नहीं बन सकती है कि कश्मीर विशेष सुविधा प्राप्त राज्य है। जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला ने कहा है कि भारत सबका है, पूरे भारत पर सभी का अधिकार है। यह बात उन्होंने बहुत अच्छी कही है कि भारत सबका है किंतु उन्हें इस बात का भी ध्यान देना होगा कि जिस तरह से पूरा भारत सबका है, उसी तरह से कश्मीर भी सबका है। कश्मीर पूरे देशवासियों का है। ऐसी आदर्श स्थिति लाने के लिए पूरे देश के लोगों को वास्तविक रूप से धर्मनिरपेक्ष बनना होगा। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मात्र ढोंग करने से काम नहीं चलेगा।
सोशल मीडिया के एक संदेश को मैं इस लेख में आप सबसे शेयर करना चाहता हूं कि किसी भी धर्म के दस लोगों के बीच एक मुस्लिम बहुत ही शांति एवं शुकून से अपना जीवन व्यतीत कर लेता है किंतु क्या ऐसा भी संभव है कि दस मुस्लिम लोगों के बीच किसी अन्य धर्म का व्यक्ति शुकून के साथ रह ले। मैं यह बिल्कुल भी नहीं कहना चाहता कि इसी प्रकार की स्थिति सर्वत्र है किंतु तमाम मामलों में ऐसा देखने को मिल जाता है। जहां तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात है तो उनके शासन काल में ऐसा कोई काम नहीं हुआ जो किसी धर्म के आधार पर किया गया हो। इसके पहले अटल बिहारी वाजपेयी के शासन काल में भी यही देखने को मिला था कि उन्होंने देश के समस्त लोगों का विकास किया। धार्मिक आधार पर किसी का तुष्टीकरण नहीं किया था किंतु सरदार मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए सरकार ने बार-बार यह साबित करने का प्रयास किया कि उनकी सरकार किसी विशेष संप्रदाय के लोगों के लिए कुछ विशेष कार्य कर रही है। यह बात अलग है उन्होंने कहा भले ही बहुत कुछ हो, किंतु किया कुछ भी नहीं?
कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि यदि श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए को इतनी जबर्दस्त सफलता मिली है तो इस बात का मंथन अवश्य होना चाहिए कि देश किस दिशा में आगे बढ़ रहा है क्योंकि आदर्श स्थिति बिना मंथन के नहीं आ
सकती है?
हिन्दुस्तान की राजनीति में एक बात अकसर यह भी देखने को मिलती है कि सेकुलर बनने के लिए कुछ लोग अपने ही धर्म की आलोचना करने लगते हैं। ऐसा करने के पीछे उनके मन में यह भाव होता है कि मेरे धर्म के लोग तो मेरे ही हैं, अन्य धर्मों के लोगों को भी खुश कर दिया जाये किंतु मैं एक बात स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूं कि सही अर्थों में सेकुलर व्यक्ति वही है जो अपने धर्म का आदर करते हुए दूसरे धर्मों का सम्मान करे क्योंकि यह भी अपने आप में पूरी तरह सत्य है कि जो व्यक्ति अपने धर्म का सम्मान नहीं कर सकता वह दूसरे धर्म का सम्मान नहीं कर सकता है।
लोकसभा के अंतिम चरण के चुनाव के पहले 18 मई को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी साधना के लिए केदारनाथ गये तो विपक्ष के कई नेताओं ने कहा कि यह आचार संहिता का उल्लंघन है। ऐसा वे राजनीतिक लाभ लेने के लिए कर रहे हैं जबकि केदारनाथ पहुंचकर प्रधानमंत्री ने किसी अन्य धर्म का अपमान तो किया नहीं और न ही उन्होंने किसी अन्य धर्म के बारे में किसी प्रकार की टिप्पणी की। धार्मिक मान्यता के अनुसार अलग-अलग जगह भांति-भांति का रूप धारण करने वाले लोग सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकते हैं।
ओवैसी जैसे नेताओं को यदि लगता है कि हिन्दू वोटबैंक बन रहे हैं और ऐसा न हो तो इसके लिए उन्हें भी आगे आना होगा और देश के समक्ष मिसाल के तौर पर कुछ ऐसे कार्य करने होंगे जिससे धार्मिक आधार पर गोलबंदी न हो और लोग ‘राष्ट्रधर्म’ एवं ‘मानव धर्म’ निभाने के लिए प्रेरित हों क्योंकि इस काम के लिए सभी को आगे आना होगा। जिन दलों को ऐसा लगता है कि कश्मीर से सेना हटाने से उनके वोटबैंक में बढ़ोत्तरी हो जायेगी तो वे गफलत में हैं क्योंकि ऐसा नहीं होने वाला है। पूरा देश चाहता है कि राष्ट्र मजबूत एवं सुरक्षित हो।
मैं यह बात दावे के साथ कह सकता हूं कि आजादी के बाद धर्मनिरपेक्षता के नाम पर यदि पाखंड नहीं किया गया होता तो आदर्श स्थिति आने की दृष्टि से देश अब तक बहुत आगे निकल चुका होता। प्रत्येक नागरिक को सबसे पहले दिलो-दिमाग से यह स्वीकार करना होगा कि सबसे पहले वह इस देश का नागरिक है। देश की एकता, अखंडता एवं विकास की उसकी पहली जिम्मेदारी है। कौन किस धर्म से है, किस जाति से है या फिर किस गोत्र से, ये सभी बातें बाद में आती हैं यानी ‘राष्ट्रधर्म’ और ‘मानवधर्म’ को प्राथमिकता पर रखना होगा।
उत्तर प्रदेश में विशाल ‘कुंभ’ का आयोजन हुआ। जितनी संख्या में लोग प्रयागराज पहुंचे और जिस प्रकार से पूरा शहर नियंत्रित रहा और लोगों ने जिस प्रकार से सहयोग किया। लोगों की नजर में असंभव लगने वाला कार्य संभव में तब्दील हो गया तो ऐसे में यह उम्मीद की जा सकती है कि राजनीति में भी आदर्श स्थिति लायी जा सकती है। इसके लिए सिर्फ आवश्यकता इस बात की है कि साफ एवं शुद्ध मन से आगे बढ़ा जाये। जिस दिन ऐसा हो जायेगा, उससे एक लाभ यह भी होगा कि धार्मिक आधार पर हो रही मारपीट भी समाप्त हो जायेगी। तो आईये, हम सभी इस रास्ते पर आगे बढ़ें, सफलता निश्चित मिलेगी और इसी में राष्ट्र एवं समाज, सभी का कल्याण निहित है।
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर)
(लेखक राम-जन्मभूमि न्यास के
ट्रस्टी रहे हैं और भा.ज.पा. केन्द्रीय
कार्यालय के कार्यालय सचिव रहे हैं)