राजनीतिक स्वार्थ की चरम सीमा है मुफ्तखोरी…


इस समय देश में चुनावी सरगर्मियां जोरों पर हैं। ‘येन-केन-प्रकारेण’ सत्ता प्राप्त करने के लिए राजनेता बेचैन हैं। राजनीतिक मर्यादायें ध्वस्त हो रही हैं। राजनीतिक लोक-लाज का कोई नामो-निशान नहीं है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि राजनीति का स्तर गिरता जा रहा है। यह सब तो हो ही रहा है, इसी कड़ी में चुनाव जीतने के लिए ‘मुफ्तखोरी’ नामक बीमारी देश में बहुत तेजी से बढ़ती जा रही है। चूंकि, राजनीतिक दलों के पास मानव कल्याण एवं विकास की कोई ठोस रूपरेखा नहीं होती है तो वे सतही उपायों के माध्यम से चुनाव जीतना चाहते हैं। चुनाव में ऐसे-ऐसे वायदे कर दिये जाते हैं, जो कभी पूरे हो ही नहीं सकते हैं किंतु कभी-कभी जनता उन पर भरोसा कर लेती है। प्रधानमंत्रा नरेंद्र मोदी ने किसानों के खाते में प्रोत्साहन राशि के रूप में 6 हजार रुपये प्रति वर्ष देने का कार्य शुरू किया तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 72 हजार रुपये प्रति वर्ष देने का वायदा कर दिया है। श्री राहुल गांधी का वायदा कितना पूरा होगा, यह तो भविष्य की बात है किंतु एक बहुत साधारण सी बात है कि किसी सामान्य परिवार का मासिक बजट यदि हजार-दो हजार रुपये बढ़ जाता है तो वह सोचने लगता है कि इसे कैसे पूरा किया जायेगा? इस हजार-दो हजार की पूर्ति के लिए लोग तमाम तरह का उपाय करने लगते हैं।

यदि ईमानदारी से विश्लेषण किया जाये तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि जिस प्रकार किसी परिवार का संचालन होता है, ठीक उसी तरह सरकार का भी संचालन होता है। कोई काम बहुत व्यापक स्तर पर होता है तो कोई निहायत ही छोटे स्तर पर। परिवार में बच्चों के दूध का पैसा काटकर पढ़ाई एवं दवाई में लगा दिया जाये तो क्या इसे विकास कहा जायेगा। यह तो एडजस्ट करने वाली बात है। बच्चे को जितनी जरूरत दवाईयों की है, उससे कम जरूरत दूध की भी नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 6 हजार रुपये प्रति वर्ष और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 72 हजार रुपये प्रति वर्ष देने की घोषणा तो कर दी है किंतु इसके लिए यह नहीं बताया गया कि इसमें खर्च होने वाली धनराशि कहां से आयेगी?

हालांकि, मुफ्त में खैरात बांटकर चुनाव जीतने की कोई नयी परंपरा नहीं है किंतु पहले यह कुछ राज्यों तक ही सीमित थी मगर अब इसका दायरा राष्ट्रीय स्तर पर हो गया है। अपने देश में एक पुरानी कहावत प्रचलित है कि ‘कमाए धोती वाला और खाए टोपी वाला’ धोती वाले का मतलब किसान और टोपी वाले का आशय नेता से है यानी किसान मेहनत करता है और नेता मुफ्त की खाते हैं। बात यहीं तक सीमित होती तो कोई बात नहीं, टोपी वालों ने तो अपनी तरह की आदत देश के बहुत बड़े तबके में फैला दी है यानी देश में मुफ्तखोरों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।

आर्थिक रूप से कमजोर, मजबूर, लाचार, महिलाओं एवं बुजुर्गों के लिए तमाम तरह की कल्याणकारी योजनाएं सरकार द्वारा संचालित की जा रही हैं। यदि इन योजनाओं का सही तरीके से संचालन हो जाये और भ्रष्टाचार समाप्त हो जाये तो समय-समय पर चुनाव जीतने के लिए खैरात बांटने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

वास्तव में मदद उसे मिलनी चाहिए, जो उसका हकदार है, जिसे वास्तव में उसकी जरूरत है। यदि पूरा देश मुफ्त में बैठकर खाने वाला बन जायेगा तो खिलायेगा कौन? जिन लोगों के टैक्स के पैसे से खैरात बांटने की घोषणाएं की जाती हैं, यदि उन्हें लग गया कि उनके पैसे का दुरुपयोग हो रहा है तो मुफ्त में खाने और खिलाने वालों के मंसूबों पर पानी फिर जायेगा। देश में यदि भुखमरी एवं बेरोजगारी है तो भ्रष्टाचार के कारण है।

देश में गरीबी दूर करने की योजनाओं की कमी नहीं है। कमी यदि है तो उन्हें भ्रष्टाचार से मुक्त कर सही तरह लागू करने की। सरकारें यदि सही तरीके से यही काम कर दें तो खैरात बांटकर चुनाव जीतने की नौबत ही नहीं आयेगी। सभी समस्या की जड़ है भ्रष्टाचार। बहुत पहले डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि समाज कल्याण के लिए यदि एक रुपया जाता है तो उसमें से 25 पैसे नीचे तक पहुंचता है। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि एक रुपये में से 15 पैसे ही नीचे पहुंचता है बाकी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है।

वैसे देखा जाये तो मुफ्तखोरी की राजनीति दक्षिण के राज्यों से शुरू हुई थी। वहां प्रारंभिक दौर में चावल एवं अन्य खाद्य सामग्री मुफ्त में देने की आम बात हुआ करती थी। बाद में तो चुनावों के समय फ्रिज, टीवी, मंगल सूत्रा, कैश एवं आदि तक पहुंच गई थी। स्व. जयललिता द्वारा शुरू की गई ‘अम्मा कैंटीन’ उन्हें लंबे समय तक सत्ता में रखने में काफी मददगार साबित रही। बाद में तो यह परंपरा कमोबेश पूरे देश में फैल गई। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने मुफ्त में लैपटॉप बांटा तो मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कन्याओं, महिलाओं एवं बुजुर्गों के लिए तमाम तरह की सुविधाएं, दीं। मध्य प्रदेश में तो वे ‘मामा’ के नाम से मशहूर हो गये किंतु उसी मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने नहले पर दहला चलते हुए किसानों के कर्ज माफी की घोषणा कर दी। परिणाम सबके सामने है।

छत्तीसगढ़ में रमन सिंह लंबे समय तक मुख्मंत्री रहे तो इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह था कि उन्होंने लोगों को 2 रुपये किलो चावल देने की योजना शुरू की। इसके साथ-साथ उन्होंने और भी तरह की योजनाएं शुरू की। छत्तीसगढ़ में तो डॉ. रमन सिंह ‘चावल बाबा’ के नाम से मशहूर हुए। बिहार में नीतिश कुमार ने लड़कियों को साइकिल बांटी तो दिल्ली में विधानसभा चुनाव लड़ते समय आम आदमी पार्टी ने ‘पानी माफ और बिजली हाफ’ का नारा दे दिया, परिणाम सामने है। उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने के पीछे एक कारण यह भी बताया जाता है कि केन्द्र सरकार ने उज्जवला योजना के तहत जो मुफ्त में गैस सिलेंडर बांटा, उसकी बहुत भूमिका रही है।

किसानों का कर्जा माफ कर बार-बार सरकारें भले ही बन-बिगड़ रही हैं किंतु बहुत से किसान ऐसे हैं जिन्होंने इसे धंधा बना लिया है। जब भी चुनाव आता है, इस प्रकार के किसान अपने परिवार के तमाम सदस्यों के नाम कर्ज ले लेते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि चुनाव आने वाला है, कर्ज तो माफ हो ही जायेगा।

हिन्दुस्तान में एक पुरानी मान्यता है कि व्यापारी को दिन पूरा होने से पहले गल्ला नहीं संभालना चाहिए, अपशकुन माना जाता है। इसका आशय यह है कि दुकान बंद होने पर जो आंकड़ा आता है, वही सही होता है। आंकड़ा सही मिले या न मिले किंतु आज देश में आंकड़ों का खेल बहुत तेजी से चल रहा है। सोशल मीडिया के माध्यम से आंकड़े इकट्ठे हो रहे हैं और उसका उपयोग तमाम सर्वे कंपनियों के माध्यम से हो रहा है।

शासक वर्ग आंकड़ों की बाजीगरी के बदौलत अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने में लगा है। आंकड़ों की बाजीगरी में ब्यूरोक्रेसी की भी बहुत बड़ी भूमिका है। मुफ्तखोरी की राजनीति में आंकड़ों की बाजीगरी खूब चल रही है। कितने लोगों को योजनाओं का लाभ मिल रहा है, इसका कोई स्पष्ट डाटा नहीं है। फर्जी आंकड़ों की बदौलत राजनीति का दौर चरम पर है। लोगों को बेवकूफ बनाया जा रहा है। सही तरीके से यदि विश्लेषण किया जाये तो इसे कहा जा सकता है कि ‘माल खाये मदारी-नाच करे बंदर’ यानी मेहनत कोई और कर रहा है, खा कोई और रहा है।

बैंकों से भारी-भरकम राशि लेकर लोग विदेशों में जाकर ऐशो-आराम की जिंदगी बिता रहे हैं। बैंकों के माध्यम से तमाम प्रभावशाली लोग आम जनता के खून-पसीने की कमाई हड़प रहे हैं। आखिर, यह सब क्या है? यह भी तो मुफ्तखोरी का ही घिनौना रूप है। बैंकों से लोन लेकर कर्ज न चुकाने वाले प्रभावशाली लोगों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है यानी ‘मुफ्त’ की कमाई पर पलने वाले प्रभावशाली लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। बैंक से कर्ज लेकर न देने वाले यानी एनपीए की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। यह सब तो हो ही रहा है, ऊपर से गरीबों के नाम पर जो भी योजनाएं चलाई जा रही हैं, उसका अधिकांश हिस्सा भी इसी प्रकार के लोग चट कर जा रहे हैं। इस प्रकार की प्रवृत्ति पर लगाम लगाने की कोशिश प्रधानमंत्रा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार ने की है किंतु इस दिशा में अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।

कड़ी मेहनत कर सरकारी खजाने में करों के माध्यम से पैसा देने वाले मेहनतकश आम आदमी का पैसा है। इस आम आदमी के करों से प्राप्त राशि के उपयोग को मुफ्तखोरी में लुटाया जाता है तो देश की उत्पादकता में भागीदार बनने वाले हाथों को आलसी बनाना नहीं है तो और क्या है? क्या लोगों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने का एक मात्रा माध्यम मुफ्तखोरी ही है? इसी धरती पर स्विटजरलैंड जैसे देश भी हैं जहां के लोग सरकार से मुफ्त में कुछ भी लेना ही नहीं चाहते हैं। भारत में तो ‘मुफ्त का चंदन, घिस मेरे नंदन’ वाली कहावत खूब चरितार्थ हो रही है।

मुफ्तखोरी के तमाम उदाहरण हैं, जिनका उल्लेख संभव नहीं है किंतु इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जो लोग अपनी मेहनत की कमाई से टैक्स देकर मुफ्तखोरों को पाल रहे हैं, यदि उनका दिमाग घूम गया तो क्या होगा? यदि टैक्स देने वालों के मन में यह भाव आ गया कि वे देश के निकम्मे लोगों को क्यों पालें तो क्या होगा? समाज कल्याण की योजनाएं लोगों का जीवन स्तर ऊंचा उठाने के लिए हैं न कि ‘मुफ्तखोरों’ को पालने के लिए। सबको समान रूप से शिक्षा का अवसर, उच्च व तकनीकी शिक्षा की पहुंच साधनहीन पर योग्य युवाओं तक पहुंचाने की व्यवस्था, सबको चिकित्सा सुविधा, पानी-बिजली की सुविधा, सस्ता और बेहतर आवागमन, गरीबों को सस्ता अनाज आदि में आदि कार्य कैसे होंगे? लोक लुभावन मुफ्तखोरी की योजनाएं सत्ता तक पहुंचने का माध्यम तो बन सकती हैं, पर इसके परिणाम जो सामने आ रहे हैं, विसंगति पैदा करने वाले हैं। निठल्ले एवं निकम्मे लोगों की संख्या बढ़ाकर राष्ट्र का निर्माण नहीं किया जा सकता है।

आज आवश्यकता इस बात की है कि रियायत एवं मुफ्तखोरी की परिभाषा में अंतर करना होगा। हिन्दुस्तान की राजनीति में एक आम धारणा है कि चुनावी वर्ष में लोक लुभावन बजट की घोषणा की जाती है और चुनाव के बाद महंगाई बढ़ जाती है, फिर चार साल तक जनता का खून चूसने का दौर चलता है और पांचवें वर्ष यानी चुनावी वर्ष में रियायतों की बात होने लगती है। आंकड़ों की बाजीगरी से महंगाई भी कम हो जाती है और जनता सब कुछ भूल जाती है। जनता झूठे वायदों के जाल में फंस जाती हैं किंतु अब समय आ गया है कि हिन्दुस्तान के राजनेता एवं राजनीतिक दल इस संबंध में गंभीरता से विचार करें अन्यथा मुफ्तखोरी की लपट में आकर एक दिन स्वयं बरबाद हो जायेंगे और उनके सामने पाश्चाताप के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचेगा।

अरूण कुमार जैन (इंजीनियर)

(लेखक राम-जन्मभूमि न्यास के

ट्रस्टी रहे हैं और भा.ज.पा. केन्द्रीय

कार्यालय के कार्यालय सचिव रहे हैं)