युग सरोकार के प्रकाशन का उद्देश्य


युग सरोकार के प्रकाशन का उद्देश्य पत्रिकाओं के झुरमुट में एक और पत्रिका को शामिल करना भर नहीं है, बल्कि उन सरोकारों की पुर्नास्थापना करना है, जिन्हें धन कमाने की होड़ में आज मीडिया पीछे छोड़ चुका है या भुला चुका है। स्वाधीनता प्राप्ति के पहले जो पत्राकारिता मिशन थी वह स्वाधीनता के बाद व्यवसाय बनीं तथा अब उसे धंधा कहें, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। आज समाचार पत्रा समूहों और दूरदर्शन चैनलों का उद्देश्य प्रायः धन कमाना  रह गया है। अधिक विज्ञापन पाने के लिए जहां समाचार पत्रा बिक्री से अधिक प्रसार संख्या दिखाते हैं, वहीं दूरदर्शन के चैनल टीआरपी बढ़ाने के फेर में अधकचरे समाचार और घटिया मनोरंजन प्रस्तुत करने में कोई गुरेज नहीं करते हैं। अब अधिकतर पत्रिकाएं भी विचारों के स्थान पर कामोत्तेजक चित्रा और पाठ्य सामग्री प्रकाशित कर रही हैं। अगर उनकी इस प्रवृत्ति पर कोई टीका-टिप्पणी करे, तो उनका टका-सा उत्तर होता है कि पाठक जो पढ़ना चाहता है, वे वही प्रकाशित कर रहे हैं। ठीक उसी तरह, जैसे कि फिल्म निर्माता कहता है कि वे वैसी ही फिल्में बना रहे हैं, जैसी दर्शक देखना चाहते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि जब-जब अच्छी फिल्में बनीं दर्शकों ने उन्हें बड़े चाव से देखा। यही नहीं, फ्लाप रही फिल्मों में अच्छी फिल्में कुछेक ही हैं।

ऐसे तर्क से पत्रिकाओं और फिल्मों का स्तर तो गिरा ही है, समाज निर्माण का उनका सरोकार भी नहीं रहा है। विचार प्रवण पत्रिकाएं निश्चय ही अपने सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक सरोकारों का निर्वाह करते हुए एक प्रकाश पुंज की तरह व्यक्तियों, राजनेताओं, आर्थिक चिंतकों और धार्मिक विचारकों का पथ प्रशस्त करती हैं।

पत्राकारिता में सामाजिक सरोकार सर्वोपरि होने चाहिए, किंतु पत्राकारिता ने सामाजिक सरोकारों को प्रायः त्याग दिया है। वह समाज सुधारक की भूमिका न निभाकर समाज में जाने-अनजाने विकृतियां पैदा कर रही है। बच्चे उद्दंड क्यों हो रहे हैं, उनमें अपने बड़ों और गुरुजन के प्रति अवज्ञा की भावना क्यों पैदा हो गयी है, उस ओर ध्यान देने का उत्तरदायित्व पत्राकारिता नहीं निभा रही है। पत्रिकाओं में ऐसी सामग्री की बेहद कमी है, जो बच्चों को संस्कारवान बनाये। और अगर बच्चे संस्कारवान नहीं बनेगे, तो निर्मल समाज का निर्माण कैसे होगा?

समाज सशक्त होगा, तो राजनेता देश और समाज की चिंता करेगा। भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ डूबा नहीं रहेगा। वह अपने लिए सुख-सुविधा जुटाने में ही संलग्न नहीं रहेगा, वह जिसे आज अपनी प्रजा मानता है, उस आम आदमी के प्रति अपने उत्तरदायित्व को भी समझेगा। वह बेशक राजा की तरह व्यवहार करे, लेकिन यह न भूले कि उसे आम आदमी ने हीे वोट देकर अपना प्रतिनिधि चुना है, उसके वोट के बल पर ही वह ऊंची पदवी का हकदार बना है। मुझे तो हैरत होती है कि कोई मंत्राी यह कैसे कह सकता है कि विमान का कम खर्चीला और अपेक्षाकृत अधिक सघन सीटों वाला भाग ‘पशुओं का बाड़ा’ है। आम आदमी विमान में यात्रा नहीं कर सकता। वहां भी कुछ खास लोग ही होते हैं। अगर उनके बैठने का स्थान ‘पशुओं का बाड़ा’ है, तो आम आदमी उनकी नजर में क्या होता होगा, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। यह सोच क्यों पैदा हुआ? इसीलिए न कि जन-प्रतिनिधि जन के प्रति अपना उत्तरदायित्व भूल बैठा है। वोट पाने के बाद उसे मतदाता के प्रति अपना सरोकार याद नहीं रहता। उसकी सरोकारहीनता उसे आम आदमी के प्रति असंवेदनशील बना देती है। लोकतंत्रा में ही क्यों, किसी भी तंत्रा के लिए यह स्थिति अशोभनीय और असहनीय है। इसमें बदलाव लाने के लिए ‘युग सरोकार’ ने सशक्त प्रयास करने का बीड़ा उठाया है। हम इस प्रयास में सफल होगें। समाज और सत्ता के चरित्रा को बदलने का हमारा संकल्प निश्चय ही सिरे चढ़ेगा।