मानवीय रिश्ते की चीख


बच्चों को अबोध, मासूम, सरल, निश्छल आदि संज्ञाओं से अभिहित कर उन्हें गरिमामंडित किया जाता है और हम अपनी संवेदनशीलता उन पर उड़ेलते हैं। लेकिन हमारी सारी संवेदनशीलता अंधविश्वास के दानव के क्रूर पंजों में छटपटा कर दम तोड़ देती है। हमारी संवेदनशीलता, दया और करुणा, निर्ममता, क्रूरता और पाशविकता में तब्दील हो जाती है। बच्चे अबोध होते हैं और शक्तिहीन भी, इसी कारण हम अंधविश्वास के नाम पर उन पर हर तरह का अत्याचार करते हैं। आदिवासी बच्चों के इलाज के नाम पर उनके शुभचिंतक जिस ढंग से अत्याचार करते हैं, वह हमारी शिराओं के खून को खौलने वाला होता है। झारखंड प्रदेश की खबर है कि जिन आदिवासी बच्चों का कुपोषण या पेट संबंधी अन्य रोगों से पेट निकल जाता है, उन्हें आदिवासी यह मानते हैं कि पेट में कीड़े के कारण पेट निकलता है। उनके पेट के बगल में वे गर्म लोहे के छड़ों से दागते हैं। बच्चे चीखते-चिल्लाते हैं और कभी-कभी तो आजीवन विकलांग बन कर रह जाते हैं। यह है अंधविश्वास का घिनौना रूप।

हम लाख कहें कि देश का आर्थिक-सांस्कृतिक विकास होने के साथ-साथ वैज्ञानिक विकास के क्षेत्रा में हम नया प्रतिमान स्थापित कर रहे हैं, लेकिन हम अंधविश्वास के सामने लाचार हैं। इस अंधविश्वासी चिकित्सा से न जाने कितने बच्चे मर भी जाते होंगे। भले ही इसका आधिकारिक आंकड़ा सरकार के पास उपलब्ध नहीं हो, लेकिन यह क्रूर और हिंसक अंधविश्वासी कार्रवाई संपूर्ण सभ्य मानव जाति के लिए कलंक है, जिन पर अंकुश लगाना चाहिए। उस क्षेत्रा में बच्चों को स्कूल नहीं भेजते हैं, उन्हें पोषणयुक्त भोजन उपलब्ध नहीं कराते हैं, उनके तन पर साफ-सुथरी पोशाक नहीं दिखाई पड़ती है, लेकिन हम अंधविश्वास की क्रूर कार्रवाई करने से नहीं चूकते। इसके पीछे बच्चों की शक्तिहीनता भी है, जिसके फलस्वरूप वे प्रतिरोधात्मक कदम नहीं उठाते। चीखते-चिल्लाते हैं और आंसू पीकर चुप हो जाते हैं। शक्तिहीनता के अंासू में याचना-भाव छिपा होता है, लेकिन हम कितने अशालीन, संवेदना-शून्य और निर्मम हंै कि अंधविश्वास की सुरंग में आंखें वह याचना नहीं देख पाती हैं और हम अमानवीय हरकत से बाज नहीं आते हैं। बच्चों में भी शक्तिहीनता के कारण परवशता रहती है। यही नहीं, बल्कि यह भी सुनने में आता है कि विदेशों में छोटे बच्चों को ऊंट पर बिठाकर ऊंट को दौड़ाया जाता है और बच्चे चीखते-रोते रहते हैं। यह तमाशा तब तक चलता है जब तक बच्चे रोते-रोते दम नहीं तोड़ देते हैं। इसी तरह की खबर आदिवासी बच्चों को लोहे के छड़ों से दागने की है। हमारे कान बच्चों का चीखना-रोना नहीं सुनते और हमारे हृदय मानवीय रिश्ते की चीख नहीं सुनते। हमारे दिल और कान दोनों पथरीले हो गये हैं, जहां से मानवता की चीख टकरा कर वापस चली आती है। ऐसा इसलिए होता है कि तर्क और बुद्धि के प्रति उनकी निष्ठा दुराग्रही हो गयी है और अंधविश्वास के प्रति वे आस्थावान हैं। यह अंधविश्वास उनकी बुद्धि, संस्कार, करुणा और मानवीय संवेदना को प्रभावित करता है और आचरण ऐसे क्रिया-संवेग से प्रभावित होता है, जिसे अमानवीय, संवेदनहीन और मूर्खतापूर्ण ही कहा जा सकता है।