ऐसे कैसे देश की राजनीति स्वच्छ एवं स्वस्थ होगी?


इस समय पूरे देश का राजनीतिक मिजाज चुनावमय है। चुनावमय होने का आशय इस बात से है कि चुनावी माहौल में सब कुछ चुनाव जीतने की दृष्टि से आयोजित एवं संचालित किया जाता है। बरसात के मौसम में पानी के प्रलय से बचने के लिए एक दूसरे के घोर विरोधी सांप और नेवला भी एक जगह आ जाते हैं, ठीक उसी प्रकार का माहौल चुनाव के समय भी देखने को मिलता है। अभी कुछ दिन पहले जो लोग आपस में एक दूसरे के साथ उठना-बैठना भी पसंद नहीं करते थे, आज वे एक दूसरे के साथ बैठकर भोजन और रैलियां कर रहे हैं।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि चुनावी मौसम में ‘आयाराम-गयाराम’ की संस्कृति बहुत हावी हो जाती है। राजनैतिक मूल्य समाप्त हो जाते हैं, क्षण भर में राजनीतिक निष्ठा और विचारधारा बदल जाती है। अब सवाल यह उठता है कि राजनीति का मकसद क्या है? ‘येन-केन-प्रकारेण’ क्या जन-प्रतिनिधि बन लेना ही मुख्य मकसद है या इसका कुछ उद्देश्य भी होना चाहिए। चक्रवर्ती राज गोपालाचारी (राजा जी) डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, आचार्य नरेंद्र देव, जय प्रकाश नारायण, डॉ. राम मनोहर लोहिया, आचार्य जे.बी. कृपलानी, चंद्रशेखर सहित तमाम नेताओं ने राजनीतिक निष्ठा बदली थी, किंतु उनका बहुत विराट मकसद था। उनका मकसद मात्रा इतना भर नहीं था कि एक दल से दूसरे दल में जायेंगे तो टिकट का जुगाड़ जायेगा।

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कांग्रेस से निकलने के बाद भारतीय जन संघ की स्थापना की तो इसके पीछे उनकी मंशा बिल्कुल साफ थी कि वे करना क्या चाह रहे थे? जाति एवं धर्म के नाम पर वोट मांगना तो बहुत सामान्य-सी बात है। बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है अब तो राजनीति गोत्रा तक पहुंच गई है। उत्तर प्रदेश के रामपुर में तो सपा नेता आजम खान ने अंडरगारमेंट के कलर तक राजनीति को पहुंचा दिया है।

राजनीति स्वस्थ एवं स्वच्छ कैसे होगी, यह एक विस्तृत चर्चा का विषय है किंतु राजनीति को स्वच्छ एवं स्वस्थ करने के लिए कुछ मापदंड अवश्य होने चाहिए। सुदृढ़ प्रजातंत्रा के लिए सबसे आवश्यक यह है कि सत्तापक्ष यानी पक्ष सर्व समावेशी होना चाहिए, जो विपरीत परिस्थितियों में भी ‘सबका साथ-सबका विकास’ के रास्ते पर चल सके। सर्व समावेशी सत्ता पक्ष के साथ-साथ मजबूत एवं दूरदर्शी विपक्ष का भी होना अति आवश्यक है। ऐसा विपक्ष जो सत्तापक्ष की कमियों का मूल्यांकन कर सचेत तो करे ही, साथ ही कमियों के प्रति जनता को भी जागृत करे। ऐसे विपक्ष की जरूरत नहीं है जो सिर्फ विरोध के लिए विरोध करे। मजबूत एवं दूरदर्शी विपक्ष सत्तापक्ष को किसी भी मुद्दे पर तत्काल आगाह कर सकता है। पक्ष एवं विपक्ष के अतिरिक्त दबाव रहित एवं निष्पक्ष न्यायपालिका की भी निहायत आवश्यकता है। यदि न्यायपालिका निष्पक्ष होगी तो लोगों के मन में यह भय रहेगा कि कोई भी गलत कार्य करने पर न्यायपालिका का चाबुक चल सकता है। सुदृढ़ प्रजातंत्र के लिए निष्पक्ष एवं स्वतंत्रा मीडिया भी बहुत महत्वपूर्ण है। मीडिया ही वह माध्यम है, जो सभी को सचेत करने का काम करता है। इन चारों के अतिरिक्त जागरूक नागरिक भी उतने ही अधिक महत्वपूर्ण हैं। जागरूक मतदाता को प्रत्येक पांच वर्ष पर मौका तो मिलता ही है किंतु समस्या इस बात की है कि ये सभी स्तंभ जनता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाये हैं।

यदि सत्ता पक्ष की बात की जाये तो उसे सर्व समावेशी होना चाहिए। सत्ता पक्ष को अपने अंदर सभी को समावेशित करने की क्षमता विकसित करनी होगी। कहां गलत हो रहा है और कहां सही, इसकी फिक्र सत्तापक्ष को ही करनी होगी। इससे भी बड़ी बात यह है कि सत्ता पक्ष को अपना दिल थोड़ा बड़ा करना चाहिए। जो चल रहा है, चलने दो या कुछ भी नहीं होने वाला है, इस बात से बाहर निकलना होगा। मेरे से पहले सरकार ने जो कुछ किया है, उसी रास्ते पर मैं भी चलूंगा। इस विचार से यदि कार्य होगा तो राजनीति स्वच्छ एवं स्वस्थ नहीं हो सकती है।

ऐसा नहीं है कि भारतीय राजनति में ऐसे उदाहरण नहीं हैं, जिससे नसीहत ली जा सके। उदाहरण के तौर पर अपने प्रधानमंत्रित्व काल में श्री नरसिंहाराव विपक्ष के नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी के घर पहुंचे और उनसे आग्रह किया कि आपको संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व करना है। श्री नरसिंहा राव के आग्रह को विपक्ष के नेता अटल जी ने बिना कुछ सोचे-विचारे तत्काल स्वीकार कर लिया और संयुक्त राष्ट्र संघ में अटल जी ने भारत का जबर्दस्त प्रतिनिधित्व किया। संयुक्त राष्ट्र संघ से बाहर निकलने पर पत्राकारों ने श्री वाजपेयी से भारतीय जनता पार्टी एवं कांग्रेस के बारे में कुछ बात करनी चाही तो उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि वे यहां सिर्फ भारत की बात करने आये हैं। पार्टी की बात तो वे भारत में ही करेंगे।

संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की बात यदि विपक्ष का नेता रखे तो ऐसे उदाहरण राजनीति में आदर्श एवं मिसाल के तौर पर देखे जाते हैं। ठीक इसी प्रकार का उदाहरण उस समय भी देखने को मिला जब 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध छेड़ा तब तत्कालीन विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी एवं संघ प्रमुख ने कहा था कि भारत सरकार चाहे जो कुछ करे, हम साथ हैं। इससे श्रीमती गांधी को बहुत ताकत मिली और उसका परिणाम यह हुआ कि पाकिस्तान दो टुकड़ों में बंट गया किंतु आज का विपक्ष क्या कर रहा है, इस पर मंथन का समय है।

मेरे कहने का आशय यह बिल्कुल भी नहीं है कि कमी सिर्फ विपक्ष की है बल्कि यह तो सर्वविदित एवं सत्य कहावत है कि ‘ताली एक हाथ से नहीं बजती’, इसके लिए दोनों हाथों का मिलना जरूरी है। जहां तक न्यायपालिका की बात है तो न्यायपालिका में आज भी लोगों की आस्था है किंतु न्यायपालिका के प्रति लोगों का विश्वास और प्रगाढ़ हो, इसके लिए अभी बहुत कुछ किये जाने की आवश्यकता है। न्यायपालिका की सक्रियता की वजह से ही ओम प्रकाश चौटाला, लालू प्रसाद यादव जैसे दिग्गज नेताओं के साथ तमाम प्रभावशाली लोग जेल की हवा खा रहे हैं किंतु आवश्यकता इस बात की है कि न्यायपालिका की कार्यप्रणाली ऐसी बने जो सस्ती एवं सर्व सुलभ हो। गरीब से गरीब आदमी भी न्यायपालिका में जाकर न्याय पा सके। ऊपरी स्तर पर तो न्यायपालिका का चाबुक चल रहा है किंतु निचले स्तर पर भी उसी तरह के चाबुक की आवश्यकता है।

देश की राजनीति को स्वच्छ एवं स्वस्थ रखने में निष्पक्ष एवं स्वतंत्र मीडिया की भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। पक्ष, विपक्ष एवं न्यायपालिका की कमियों के प्रति पूरे देश को जागरूक करने का काम मीडिया करता है किंतु व्यावसायिकता की अंधी दौड़ में कभी-कभी देखने को मिलता है कि मीडिया भी अपनी भूमका का निर्वाह ठीक से नहीं कर पाता है। चुनावी मौसम में ‘पेड न्यूज’ की भी बहुत चर्चा होती है। ऐसी स्थिति में मीडिया की यह जिम्मेदारी बनती है कि जनता के मन में अपने प्रति और अधिक विश्वास पैदा करने का कार्य करे। हालांकि, आज भी लोग मीडिया के प्रति आशा एवं विश्वास का ही भाव रखते हैं। बस इसमें और थोड़ा सुधार की जरूरत है।

इन सबके अतिरिक्त राजनीति को स्वच्छ एवं स्वस्थ रखने में आम जनता की भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। हालांकि, आम जनता को पांच वर्ष बाद ही मौका मिलता है किंतु समस्या इस बात की है कि राजनीतिक दल आम जनता को इतना भ्रमित कर देते हैं कि उसकी समझ में नहीं आता कि क्या गलत है और क्या सही? जो दल प्रचार-प्रसार करके अपनी बातों को जनता के समक्ष जितना अधिक पहुंचा देता है, आम लोग उसके झांसे में आ जाते हैं। हिन्दुस्तान की राजनीति में ऐसे तमाम अवसर आये हैं जब आम जनता ने अपने को छला हुआ महसूस किया है।

आजकल वैसे भी पूरे देश में मुफ्तखोरी की राजनीति को बढ़ाने का काम हो रहा है। कोई कुछ कर रहा तो कोई कुछ, किंतु आम जनता को इतना जागरूक तो होना ही पड़ेगा कि वह जाति, धर्म संप्रदाय एवं गोत्रा की राजनीति से बाहर निकले। आम जनता चुनाव में आमतौर पर दो-चार माह के कार्यों के आधार पर मतदान का फैसला ले लेती है। आम तौर पर सरकारें चार साल तक अपने हिसाब से कार्य करती हैं किंतु पांचवें साल लोक-लुभावन बजट पेश करके जनता को भ्रमित करने का काम करती हैं जबकि आम जनता को इस बात के लिए जागरूक होना पड़ेगा कि वह सरकार के आखिरी वर्ष के लोक-लुभावन बजट के आधार पर नहीं बल्कि पांच साल के कार्यों के आधार पर ही फैसला ले। जिस दिन आम जनता बाहुबल, धनबल, जाति, धर्म, संप्रदाय एवं गोत्र आदि से बाहर निकलकर विकास को आधार बनाकर मतदान करना शुरू कर देगी, उसी दिन राजनीति के शुद्धीकरण का दौर प्रारंभ हो जायेगा।

इन सबके अतिरिक्त पूरे देश को मिलकर ईमानदार जन-प्रतिनिधि चुनने के लिए वातावरण बनाना होगा। नैतिक एवं बौद्धिक रूप से मजबूत लोगों को राजनीति में आने के लिए प्रेरित करना होगा। राजनेताओं और ब्यूरोक्रेसी के बीच भ्रष्टाचार की जो चेन बनी है, उस पर प्रहार करना होगा। दिशाहीन राजनीति के प्रति लोगों को जागरूक कर उद्देश्यपूर्ण राजनीति के प्रति माहौल बनाना होगा। अल्पकालिक सुविधाओं एवं लाभ के बजाय दीर्घकालिक उद्देश्यों को ध्यान में रखकर जन-प्रतिनिधियों का चुनाव करना होगा। जन-प्रतिनिधियों को आजीवन मिलने वाली सुविधाएं सीमित की जायें, इसके लिए भी जनमत तैयार करना होगा।

राजधानी दिल्ली के लुटियंस जोन में बंगले की चाहत तमाम नेताओं को जन-प्रतिनिधि बनने के लिए बेचैन करती रहती है अन्यथा राजनीति में जन-प्रतिनिधि बनने के अलावा भी बहुत कुछ है किंतु आजीवन मिलने वाली सुविधाओं का क्या होगा? इसी बात को लेकर तमाम जन-प्रतिनिधि बेचैन रहते हैं। इन्हीं सुविधाओं को कम एवं सीमित कर दिया जाये तो जन-प्रतिनिधि बनने के लिए ऐसे लोग आयेंगे, जिनके मन में सिर्फ जनता के प्रति सेवाभाव होगा और नैतिक एवं

बौद्धिक रूप से मजबूत होंगे। सुविधाओं के अभाव में लोभी-लालची दूर भागने लगेंगे। राजनीति का स्तर वैसे भी भ्रष्ट एवं लालची किस्म के नेताओं एवं जन-प्रतिनिधियों ने गिराया है, वरना पहले यदि कोई गांव का मुखिया बन जाता था तो उसका परिवार मुद्दत तक मुखिया जी के परिवार के नाम से जाना जाता था। आज तो पद से हटते ही जन-प्रतिनिधियों का रूतबा ही धूमिल हो जा रहा है। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि जन-प्रतिनिधियों को मिलने वाले विशेषाधिकारों में यदि कटौती कर दी जाये तो निश्चित रूप से जन-प्रतिनिधि बनने का उद्देश्य भी बदल जायेगा।

कई जन-प्रतिनिधि ऐसे भी हैं जो अभी कुछ दिन पहले तक अपने को राजनीति का चौकीदार बताते थे किंतु टिकट कटते ही चौकीदारी छोड़ अन्य ठिकाने पर निकल गये और अब अपने पूर्व दल की कमियां गिनाते थक नहीं रहे हैं यानी चुनाव के समय में ‘आयाराम-गयाराम’ की संस्कृति भारतीय राजनीति को बहुत नुकसान पहुंचा रही है। कोई भी अपराधी जब तक किसी दल में हैं तब तक अन्य दल के लोगों को उसमें तमाम कमियां नजर आती हैं किंतु जब वही व्यक्ति दूसरे दल में चला जाता है तो दूसरे दल वाले उसकी अच्छाईयां गिनाते नहीं थकते हैं। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को बदलना है। देश के एक-एक नागरिक को जागरूक होना होगा और तात्कालिक लाभ के बजाय दीर्घकालिक हितों को ध्यान में रखकर कार्य करना होगा, इसी में राष्ट्र, समाज एवं प्रत्येक व्यक्ति का कल्याण है। इसके लिए सभी राजनीतिक दलों को प्रयास करना होगा।

अरूण कुमार जैन (इंजीनियर)

(लेखक राम-जन्मभूमि न्यास के

ट्रस्टी रहे हैं और भा.ज.पा. केन्द्रीय

कार्यालय के कार्यालय सचिव रहे हैं)