भारतीय समाज निरंतर पाश्चात्य सभ्यता, संस्कृति एवं सोच की तरफ अग्रसर होता जा रहा है। पाश्चात्य सोच की यदि बात की जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि उसने मानव को एक मशीन मानकर इतना अपंग बना दिया है कि उसके जीने का सहारा मशीनें बनने लगी हैं। इसका परिणाम यह हो गया है कि मनुष्य अपने आप में सिमटता जा रहा है। लोग परिवार एवं समाज से कटते जा रहे हैं। अधिकांश लोग तो अपने आप में इतना सिमट गये हैं कि जैसे उन्हें यह आभास ही नहीं है कि राष्ट्र एवं समाज के प्रति उनकी भी कोई जिम्मेदारी है जबकि सदियों से भारतीय समाज की परिवार, समाज एवं सामूहिकता बहुत बड़ी पूंजी रही है।
भारतीय सभ्यता-संस्कृति में मनुष्य का विकास समूह में होता था किन्तु बदलती परिस्थितियां एवं बदलते समय के साथ जनसंख्या नियंत्राण के लिए छोटे परिवार की अवधारणा पर जोर दिया गया। ‘हम दो और हमारे दो’ का आशय यह कतई नहीं था कि लोग परिवार एवं समाज से कटकर अपने तक सीमित हो जायें। संयुक्त परिवार एवं समूह में रहने की प्रवृत्ति समाप्त होती जा रही है। नौकर, नौकरानियां, मोबाइल एवं अन्य आधुनिक उपकरणों के सहारे पले एवं बढ़े बच्चों में चिड़चिड़ापन आ रहा है।
हमारा देश कृषि प्रधान देश रहा है। कृषि एवं ग्रामीण अर्थव्यवष्था ही जीवन-यापन का प्रमुख आधार हुआ करती थी किन्तु समय के साथ गांवों से शहरों की तरफ पलायन बहुत तेजी से हुआ। तमाम गांव ऐसे हैं जहां घरों में कोई दीया-बत्ती भी करने वाला नहीं है। कुछ घरों में तो सिर्फ बुजुर्ग ही बचे हैं। ये बुजुर्ग घरों की रखवाली कर लें, यही उनके लिए काफी है।
गांव छोड़कर जो लोग शहर में आ गये हैं उनमें से अधिकांश लोग गांव जाना ही नहीं चाहते हैं। कुछ लोग तो कभी-कभी अपने गांव कुल देवी एवं कुल देवताओं की पूजा-पाठ के लिए चले जाते हैं। कुछ लोग कभी-कभी शादी-ब्याह या अन्य किसी सामूहिक कार्यक्रम में चले जाते हैं। जहां तक गांवों की बात है तो वहां अभी भी अधिकांश मकान ऐसे हैं जहां लोग समूह एवं संयुक्त परिवार में रह सकते हैं किंतु महानगरों एवं अन्य बड़े शहरों में जगह एवं मकान की कमी के कारण समूह एवं संयुक्त परिवार में रह पाना मुश्किल हो रहा है। कुछ मुश्किल तो जगह की कमी के कारण है तो कुछ समस्या मानव के एकाकी स्वभाव यानी अपने तक सिमटने के कारण है।
दादा-दादी, नाना-नानी, मामा-मामी, चाचा-चाची, बुआ-फूफा, मौसा आदि रिश्तों का मिलना-जुलना एवं इनका बच्चों को सानिध्य नहीं मिल पा रहा है। ऐसा न हो पाने के अनेक कारण हो सकते हैं किंतु आज इन्हीं परिस्थितियों के बीच ऐसे कौन से उपाय एवं प्रयास किये जायें जिससे लोगों एवं बच्चों को अधिक से अधिक समूह में रहने का अवसर मिले जिससे लोगों में समाज के साथ मिल-जुल कर रहने की प्रवृत्ति विकसित हो। गांवों से सटे बाजारों एवं छोटे कस्बों में तो समूह में रहकर सामूहिकता का विकास आसानी से किया जा सकता है किंतु इसके लिए सभी को मिलकर प्रयास करना होगा।
ग्रामीण एवं शहरी दोनों क्षेत्रों में सामूहिकता का विकास कैसे हो सकता है? इसके लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को बेहतरीन उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। सुबह एक घंटे की शाखा के आधार पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने पूरी दुनिया ने अपना नेटवर्क खड़़ा कर लिया है। थोड़े-थोड़े शुल्क लेकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ बड़े-बड़े कार्यक्रम कर लेता है। आज देश में राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रभक्ति का जो वातावरण बना है उसमें सबसे बड़ी भूमिका राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की है। आप कल्पना कीजिये कि यदि कोई बच्चा सुबह प्रतिदिन शाखा में जाकर जब यह गीत गायेगा कि –
देश हमें देता है सब कुछ,
हम भी तो कुछ देना सीखें। या
संगठन गढ़े चले,
सुपंथ पर बढ़े चलो। या
चंदन है इस देश की माटी,
तपोभूमि हर ग्राम है।
तो वह बच्चा क्या बनेगा? मैं यह पूरे दावे के साथ कह सकता हूं कि कोई बच्चा कितना भी बिगड़ा क्यों न हो यदि वह प्रतिदिन शाखा में जाने लगे तो उसके जीवन में बहुत बड़ा बदलाव आ जायेगा और वह देश का जिम्मेदार नागरिक बनेगा। आज यह देशवासियों को बताने की जरूरत नहीं है कि संघ क्या कर रहा है और संघ की शाखाओं में क्या-क्या सिखाया जाता है।
आज स्वयं सेवकों की देश के प्रति क्या भूमिका है? इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है किसी भी मुसीबत के समय स्वयं सेवक बाढ़ पीड़ितों की सेवा करते मिल जायेंगे तो कहीं चौराहों पर ट्रैफिक नियंत्रित करते मिल जायेंगे तो कहीं और राष्ट्र की सेवा एवं साधना के कार्यों में लगे मिल जायेंगे। कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि यदि संघ एवं सामूहिकता को एक दूसरे का पर्यायवाची बताया जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। देश का कोई भी नागरिक संघ की शाखा में अपने बच्चों को भेजकर उनमें सामूहिकता एवं राष्ट्र प्रेम का विकास कर सकता है।
वर्तमान समय में प्रमुख बात यह है कि एकल परिवार एवं संयुक्त परिवार के क्या नफा-नुकसान हैं? महत्वपूर्ण बात यह है कि एकल परिवार में रहते हुए भी बच्चों एवं अन्य लोगों में सामूहिकता का विकास कैसे किया जाये? उदाहरण के तौर पर छोटे-छोटे एकल मकानों के साथ यदि एक बड़ा-सा आंगन या कंपाउंड बना दिया जाये तो सभी परिवारों का उस आंगन में आना-जाना एवं मिलना-जुलना बना रहेगा। इससे बच्चों का न सिर्फ सर्वांगीण विकास होगा बल्कि सामूहिकता की भी भावना विकसित होगी।
जहां तक शहरों की बात है तो शहरों में ‘माल’ संस्कृति का विकास तेजी से हो रहा है। यदि इन्हीं ‘मालों’ में ऐसी व्यवस्था कर दी जाये जहां सामूहिकता को बढ़ाने वाली प्रवृत्ति का विकास किया जा सके। उदाहरण के लिए यदि किसी माल में यदि कोई बड़ा कॉन्फ्रेंस हाल हो और समय-समय पर अलग-अलग विषयों पर सेमिनार आयोजित होने लगें और लोग उसमें सम्मिलित होने लगें तो लोगों में सामूहिकता का विकास होने लगेगा। घर के आस-पास मॉल, पार्क, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च एवं अन्य सार्वजनिक स्थानों पर बच्चों के साथ आने-जाने का एक निर्धारित शेड्यूल बनाना चाहिए। घर के आस-पास यदि किसी भी प्रकार की प्रतियोगिता एवं सार्वजनिक कार्यक्रम हों तो उसमें भी बच्चों के साथ शरीक होना चाहिए।
भारतीय सभ्यता-संस्कृति में समय-समय पर अनेक व्रत, त्यौहार एवं उत्सव आते रहते हैं। यदि थोड़ा सा भी समय निकाल कर उसमें भागीदारी कर ली जाये तो सामूहिकता की भावना पल्लवित एवं पुष्पित हो सकती है। हम अपने बच्चों में जितना अधिक सामूहिकता की भावना विकसित करेंगे, बच्चे उतना ही मोबाईल, कंप्यूटर, एकाकीपन एवं अन्य आधुनिक उपकरणों से दूरी बनाने लगेंगे। स्वतंत्राता दिवस, गणतंत्रा दिवस, रक्षा बंधन, होली, दीवाली, ईद, प्रकाश पर्व, क्रिसमस एवं अन्य ऐसे जितने भी व्रत, त्यौहार एवं उत्सव हैं, यदि इसमें अपनी थोड़ी-बहुत भूमिका का निर्वाह कर दिया जाये तो एकाकीपन की समस्या से स्वयं निकला जा सकता है और दूसरों को भी निकाला जा सकता है।
पहले बच्चे अपने मां-बाप, दादा-दादी, के साथ हमेशा रहते थे तो गर्मियों की छुट्टियों में नाना-नानी एवं अन्य रिश्तेदारों के यहां चले जाते थे तो उनका सानिध्य प्राप्त हो जाता था। दादी एवं नानी बच्चों को परियों की कहानियां सुनाकर मनोरंजन एवं ज्ञानवर्धन किया करती थीं। आज तो लोग दादा-दादी एवं नाना-नानी के यहां जाने के बजाय कहीं महंगे टूरिस्ट प्लेस पर चले जाते हैं। किसी महंगे टूरिस्ट प्लेस पर जाना अच्छी बात है किंतु साथ में यदि दादा-दादी एवं नाना-नानी भी सम्मिलित हो जायें तो बच्चों में अपने जीवन भर के अनुभव का खजाना उड़ेल देंगे जिससे बच्चों में ज्ञान वृद्धि के साथ-साथ सामूहिकता का भी विकास होगा।
दादा-दादी एवं नाना-नानी बच्चों का मनोरंजन करने के लिए बच्चों को कभी कंधों पर बैठा लेते हैं तो कभी घोड़ा बनकर पीठ पर बैठा लेते हैं। यह सब करने का उनका मकसद यही होता है कि बच्चे का विकास स्वस्थ, प्रसन्नचित एवं सामूहिकता के वातावरण में हो, यदि किसी बच्चे को अपने मां-बाप के साथ दादा-दादी का साथ मिल जाये तो बच्चे को मोबाईल एवं कंप्यूटर से समय पास करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
शहरी भारत हो या ग्रामीण भारत, यदि लोग चाहें तो कदम-कदम पर छोटे-छोटे प्रयासों से एकल परिवार में रहते हुए भी सामूहिकता का विकास किया जा सकता है। शहरों में आजकल फ्लैट सिस्टम है। इन फ्लैटों में ‘ब्रह्म’ स्थान का अभाव जगह-जगह देखने को मिलता है। वास्तु शास्त्रा की दृष्टि से यह बहुत बड़ा दोष माना जाता है। ‘फ्लैट’ बनें किंतु इन फ्लैटों के आगे-पीछे या आस-पास ऐसे ग्राउंड भी बनाये जायें जिसमें बैठकर लोग अपने एवं बच्चों में सामूहिकता का विकास कर सकें।
समूह एवं संयुक्त परिवार की परंपरा धीरे-धीरे समाप्त होने के कारण ही बुजुर्गों को अकेले या वृद्धाश्रम में रहना पड़ता है। बुजुर्ग किसी भी सुख-सुविधा की आकांक्षा नहीं रखते हैं। उनकी मात्रा इतनी ही तमन्ना होती है कि वे अपने बहू-बेटों, एवं नाती-पोतों को अपना आशीर्वाद देते रहें और उनके बच्चे उनकी छत्राछाया में पलें, अनुभव का लाभ उठायें एवं आगे बढ़ें
किंतु वर्तमान समय में बुजुर्गों की इतनी
सी भी इच्छा बहुत मुश्किल से पूरी हो पा रही है।
नफा-नुकसान की दृष्टि से यदि बात की जाये तो एकल परिवारों में रहने एवं कोई भी निर्णय लेने की आजादी तो होती है किंतु एकल परिवार में सबसे ज्यादा सुरक्षा का खतरा बना रहता है। पूर्व डीएसपी एस.के. यादव का कहना है कि असामाजिक तत्व एकल परिवारों को ही अधिक निशाना बनाते हैं। संयुक्त परिवार में सभी एक दूसरे की सुरक्षा के साथ सहयोगी भी बने रहते हैं। सुप्रसिद्ध मनोचिकित्सक डॉ. सुनील अवाना के अनुसार एकल परिवारों में सबसे अधिक नैतिक शिक्षा और संस्कारों का हनन होता है। उन पर पाश्चात्य संस्कृति का अधिक प्रभाव शुरू हो जाता है। बच्चों का माता-पिता के प्रति आदर-सम्मान कम होने लगता है। कई बार दंपति एक दूसरे पर शक करने लगते हैं।
सामूहिकता के अभाव में या एकल परिवार में बच्चों को पालने में बहुत सी मुश्किलें आती हैं। नौकरों के भरोसे बच्चे पल रहे हैं। लाड़-प्यार के अभाव में बच्चों में चिड़चिड़ापन बढ़ रहा है। भारतीय समाज में एक बहुत ही प्रचलित कहावत है कि परिवार ही बच्चों के लिए सबसे उपयुक्त पाठशाला है। बच्चा अपने परिवार एवं कहीं भी जैसा देखता है वैसा ही सीखता है यानी बच्चा बताने-समझाने से अधिक देखकर सीखता है। जाहिर-सी बात है कि समूह या सामूहिकता के आधार पर यदि बच्चे का विकास होगा तो वह अधिक सीखेगा। समाज-शास्त्रा श्याम सिंह शशि के अनुसार एकल परिवार में अनबन होने पर कोई सुलह-समझौता कराने वाला नहीं होता है। इससे दोनों के बीच एक छत के नीचे रहने के बावजूद कलह बनी रहती है। इससे एकल परिवार टूटने की कगार पर पहुंच जाते हैं। कई बार तो जान लेने-देने की स्थिति बन जाती है।
मेरा कहने का आशय यह बिल्कुल भी नहीं है कि एकल परिवार के कोई लाभ नहीं हैं किंतु कहने का आशय यह जरूर है कि एकल परिवार के साथ यदि सामूहिकता का विकास किया जाये तो उसके लाभ अधिक हैं। यह भी जरूरी नहीं है कि बहुत बड़े कार्यों के द्वारा ही सामूहिकता का विकास किया जा सकता है। छोटे-छोटे प्रयासों के माध्यम से भी सामूहिकता का विकास हो सकता है। आवश्यकता सिर्फ इस बात की है कि इस दिशा में कुछ प्रयास सरकारी स्तर पर
किये जायें तो कुछ प्रयास समाज की तरफ से भी होने चाहिए। कुल मिलाकर
कहने का आशय यही है कि इस दिशा में सभी को मिलकर कार्य करने की आवश्यकता है जिससे सशक्त समाज व राष्ट्र का निर्माण किया जा सके।
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर)
(लेखक राम-जन्मभूमि न्यास के
ट्रस्टी रहे हैं और भा.ज.पा. केन्द्रीय
कार्यालय के कार्यालय सचिव रहे हैं)