आरक्षण एक पूर्णरूपेण व्यवस्था है जिसमें पालन-पोषण, सुरक्षा इत्यादि स्वतः ही समाहित हो जाती है। जिस प्रकार माता-पिता का बच्चों को संरक्षण प्राप्त होता है उसे स्वाभाविक ;छंजनतंसद्ध संरक्षण कहा जाता है जबकि किसी एक देश के व्यक्ति को दूसरे देश में संरक्षण प्राप्त होता है तो उसे राजनीतिक संरक्षण कहा जाता है यानी संरक्षण के प्रकार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं।
इस संरक्षण का मुख्य उद्देश्य यही होता है कि संसाधनों के अभाव में किसी का पालन-पोषण एवं विकास रुक न जाये। इसको यदि उदाहरण के तौर पर देखा जाये तो जब कोई बच्चा अनाथ हो जाता है या उसके मां-बाप या संरक्षक उसका पालन-पोषण करने में सक्षम नहीं होते हैं तो उसकी जिम्मेदारी जो लोग स्वतः लेते हैं या जिन्हें आग्रह करके दिया जाता है, ऐसे लोग संरक्षक की भूमिका में आ जाते हैं एवं इस पूरी प्रक्रिया को संरक्षणवाद कहा जा सकता है। यह संरक्षण सामाजिक स्तर पर भी हो सकता है तो इसका आधार पारिवारिक या किसी भी रूप में हो सकता है किंतु इसे जब संवैधानिक तौर-तरीकों या कानूनी रूप से किया जाता है तो निश्चित रूप से इसका पूरा तरीका बदल जाता है और सही अर्थों में देखा जाये तो इसे ही आरक्षण कहा जाता है।
आरक्षण संरक्षण से भिन्न शब्द है जो कि एक अल्पकालिक सुविधा है चाहे वह किसी बस, टेªेन, हवाई जहाज या सिनेमा हाल में हो या यूं कहिए कि जहां पर आवेदन-निवेदन करने के पश्चात निश्चित समय के लिए प्राप्त हुई यह सुविधा का समय रहता है। तब तक इसमें अधिकार समाहित रहता है मगर यह अधिकार समय सीमा की समाप्ति पर स्वतः ही समाप्त हो जाता है।
भारतीय संविधान में जिस उद्देश्य से, जिस लक्ष्य को लेकर आरक्षण व्यवस्था की गयी है उसके मूल में जाकर हम देखते हैं तो ज्ञात होता है कि एक वर्ग जो कि सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से समाज की मुख्य धारा से कटा हुआ है, उसके लिए एक सक्षम प्रतिनिधित्व तैयार हो सके, ऐसा सोचकर ‘अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति’ शब्द को संविधान में शामिल किया जाये और इसी कड़ी में अत्यंत पिछड़े वर्ग को भी सम्मिलित कर दिया जाये।
आरक्षण का उद्देश्य मूलतः सामाजिक आरक्षण को राजनीति के माध्यम से आरक्षण था और उसका प्रावधान दस वर्ष तक के लिए था परंतु राजनीतिक ठेकेदारों ने समाजोत्थान की इस भावना को धूमिल कर एवं तोड़-मरोड़कर राजनीतिक कारणों से सामाजिक आरक्षण को जातिगत या जाति आधारित आरक्षण बना दिया।
आज स्थिति यह है कि तमाम जातियां इस आरक्षण की श्रेणी में आने के लिए बेचैन हैं और संघर्ष भी कर रही हैं। राजस्थान में गुर्जरों का आरक्षण पाने के लिए जो संघर्ष रहा है उससे अन्य जातियां भी प्रेरित हो रही हैं। ऐसे में स्थिति यह भी बन सकती है कि कौन-सी जाति आरक्षण के योग्य नहीं है। बहस का विषय यह होगा। इस देश में तमाम ऐसे नेता हैं जिनका मानना है कि कुछ लोग आरक्षण समाप्त करने की बात कर रहे हैं, जबकि अभी तो आरक्षण मांगने की प्रक्रिया आगे बढ़ रही है। स्थिति यदि ऐसे ही रही तो भविष्य में चर्चा इस बात की होगी कि कौन-सी जाति आरक्षण से बाहर रहेगी और 100 प्रतिशत में कितना हिस्सा ऐसा होगा जो आरक्षण की श्रेणी से बाहर होगा।
आरक्षण के कारणों से जिस प्रकार खंडित भावनाओं की उत्पत्ति में बढ़ोत्तरी हुई है वह देश के लिए आत्मघाती है। इस आरक्षण के कारण क्षेत्राीय, जातीय और भाषायी आधार पर आरक्षण की मांगों का प्रतिपादन हुआ है। अपनी राजनीतिक पूर्ति के लिए नेताओं ने सत्ता लोलुपता के कारण समय-समय पर इन भावनाओं को भड़काया, उकसाया एवं हवा भी दी और अपनी राजनीतिक रोटियों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए देश भावना को दिन-प्रतिदिन खंडित कर रहे हैं।
जब कोई व्यक्ति सर्वोच्च पद पर पहुंच जाता है तो वह देश का प्रतिनिधित्व करता है न कि किसी वर्ग, जाति और क्षेत्रा का। आज के राजनीतिज्ञ इन सब बातों को जानते एवं समझते हुए भी अपने को देशभक्ति से ओत-प्रोत बताते हुए भी सत्ता लोलुपता के कारण इन सभी पहलुओं को ध्वस्त कर, पूरे देश में विघटनकारी वातावरण बनाये रखना चाहते हैं।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, संविधान निर्माता डाॅ. भीम राव अंबेडकर, लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल, डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, इंदिरा गांधी, जय प्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, अब्दुल कलाम जैसे राष्ट्रभक्त राष्ट्रीय नेता हुए हैं जिन्होंने विघटनकारी ताकतों को कभी भी प्रोत्साहित नहीं किया और अपनी कार्यशैली से समय-समय पर राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा दी। ऐसे में अगर हम उनकी जाति, क्षेत्रा या भाषा आधारित बातें करें या उन्हें जानें तो यह सरासर बेमानी होगा।
आज देखने में आ रहा है कि अपनी-अपनी जाति एवं मजहब के हिसाब से लोगों ने महापुरुषों का बंटवारा कर लिया है। राष्ट्र एवं समाज के लिए किस महापुरुष की क्या भूमिका रही है, इस पर विचार किये बिना लोग अपनी-अपनी राजनीति के हिसाब से महापुरुषों को आधार बनाकर राजनीति करने में मशगूल हैं जबकि इसके परिणाम बहुत घातक हो सकते हैं और इससे समाज बिखराव की तरफ और बढ़ता जायेगा। मजहब, जाति एवं वर्ग पर आधारित राजनीति करने वालों को यह बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि वे तभी तक अपनी राजनीतिक रोटी सेंक पायेंगे, जब तक समाज में सुख-शांति बनी हुई है। अन्यथा राजनीति करने वालों के मंसूबे धरे के धरे रह जायेंगे? क्या ऐसे लोगों के लिए सीरिया जैसी स्थिति में राजनीति कर पाना आसान होगा?
जातीय भावानाओं को भड़काने का एक मामला उस समय बहुत व्यापक रूप से देखने को मिला जब पूरे देश में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ बंद का आह्वान किया गया। दरअसल, पूरे मामले में विचार किया जाये तो 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला आया था उसके तहत अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण कानून में मुख्य बात यह थी कि सुप्रीम कोर्ट इस कानून के तहत दर्ज मामलों में अग्रिम जमानत की अनुमति प्रदान कर दी और बिना पूरी छानबीन के गिरफ्तारी नहीं की जा सकती।
सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला इसलिए दिया कि अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण कानून के दुरुपयोग की खबरें लंबे समय से सुनने को मिलती रही हैं। इस लिहाज से देखा जाये तो सुप्रीम कोर्ट ने सराहनीय कार्य किया है किंतु सुप्रीम कोर्ट के इसी फैसले के विरोध में कुछ संगठनों एवं व्यक्तियों द्वारा विवादास्पद बयान दिया गया और उससे राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास किया गया। इन बयानों से अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग में संदेह एवं असुरक्षा का भाव उत्पन्न हुआ जिसके कारण सामाजिक स्तर पर विद्वेष का वातावरण निर्मित हुआ, जबकि इस देश में तमाम ऐसे उदाहरण सामने हैं जिनमें इसी कानून के तहत दर्ज मामलों में गिरफ्तारी तब तक नहीं हुई जब तक कि पूरी छानबीन नहीं हुईं।
कुल मिलाकर स्थिति इस प्रकार की बनी कि यदि किसी से यह कह दिया जाये कि उसका कान लेकर कोई कौवा भाग रहा है और वह व्यक्ति अपने कान की तहकीकात किये बिना ही उस कौवे के पीछे दौड़ पड़े और जब उसे यह एहसास हो कि उसका कान तो उसके पास ही है। ऐसे में उस व्यक्ति के पास पछताने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं बचता है। कुछ इसी प्रकार की स्थिति अपने देश में तमाम मामलों में देखने को मिल रही है। बात सिर्फ आरक्षण की नहीं बल्कि तमाम मामलों में ऐसी स्थिति देखने को मिल रही है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस प्रकार की स्थिति में किसका भला होने वाला है?
सच्चाई तो यह है कि संविधान में आरक्षण की परिकल्पना पर स्वयं डाॅ. अंबेडकर का मानना था कि कहीं यह लोगों के लिए मात्र बैसाखी बनकर न रह जाये और लोग इसी पर आश्रित होकर न रह जायें। बाबा साहब का यह भी मानना था कि आरक्षण की वजह से गुणवत्ता प्रभावित न हो, उस समय बाबा साहब के मन में जो भी आशंका थी वह पूरी तरह सही साबित हो रही है। आरक्षण की बात की जाये तो भाजपा के वरिष्ठ नेता विनय कटियार ने बहुत पहले कहा था कि यदि कोई व्यक्ति एक बार आरक्षित सीट से चुनाव लड़ लेता है तो दुबारा उसे स्वतः ही छोड़ देना चाहिए और उसे अपना भाग्य किसी सामान्य सीट से आजमाना चाहिए और आरक्षित सीट से किसी कमजोर भाई-बहन को सक्षम बनने का अवसर प्रदान होने देना चाहिए, किंतु वर्तमान समय में कितने ऐसे लोग हैं जो इस फार्मूले पर सहमत होंगे क्योंकि देखने में आ रहा है कि एक बार जिसने आरक्षणरूपी मलाई का स्वाद चख लिया है वह छोड़ने के लिए तैयार नहीं हो रहा है। इस व्यवस्था से पूरे वर्ग या समुदाय का भला नहीं हो पा रहा है। आरक्षण वंचितों एवं आर्थिक दृष्टि से कमजोर व्यक्तियों के लिए एक अस्थायी प्रावधान है। इसको स्थायित्व प्रदान करने का कोई प्रावधान न था और न ही इसके लिए किसी ने प्रयास किया मगर राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए नेतागण इसको संरक्षण हर पल देते रहे हैं।
आज आवश्यकता इस बात की है कि सभी नेता एवं सामाजिक क्षेत्रा में काम करने वाले लोग इस बात के लिए प्रयास करें कि ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः’ यानी सभी सुखी हों, सभी निरोग हों। भारतीय सभ्यता-संस्कृति में यह बात बहुत गहराई से निहित है कि जब पूरी दुनिया में अमन-चैन होगा तभी हम भी सुख-शांति से रह पायेंगे। भारत के पड़ोसी देशों में यदि अशांति होगी तो भारत में कहां से शांति आयेगी? इसे इस रूप में समझा जा सकता है कि पाकिस्तान के परमाणु बम यदि आतंकियों के हाथ लग गये तो क्या होगा? अतः, हम सभी की जिम्मेदारी बनती है कि सामाजिक समरसता को मजबूत करने के लिए काम करें। असमानता चाहे जातीय हो, सामाजिक हो, आर्थिक हो, स्टेटस की हो या फिर किसी अन्य तरह की, हमेशा विघटन एवं तनाव का कारण बनती है। ऐसे में हम सभी लोगों को सिर्फ अपना ऊल्लू सीधा करने के बजाय सभी का कल्याण कैसे हो, इस भाव को लेकर काम करना होगा? इसी में राष्ट्र एवं समाज सभी का भला है। कल्याण सभी का हो, किंतु तुष्टिकरण किसी का न हो। किसी भी अवसर का लाभ सभी को समान रूप से मिले।
प्रतिस्पर्धा स्वस्थ होनी चाहिए। प्रतिस्पर्धा में यदि योग्यता एवं गुणवत्ता का तालमेल नहीं होगा तो समाज में विघटन एवं वैमनस्य बढ़ेगा। आगे बढ़ने के लिए कमजोर लोगों के समक्ष संसाधनांे की कमी सरकारी स्तर पर पूरी की जाये किंतु जब प्रतिस्पर्धा की बात आये तो पूरी तरह पारदर्शी, निष्पक्ष एवं गुणवत्ता पर आधारित हो यानी कि आरक्षण की वजह से योग्य व्यक्ति सिस्टम से बाहर हो जाये और उससे कम योग्य व्यक्ति सिस्टम के अंदर आ जाये इससे समाज बनने की बजाय बिगड़ेगा ही। आरक्षण की खामियों की वजह से योग्य व्यक्ति यदि चोर बन जाये और उससे कम योग्य सिपाही बन जाये तो उसका
परिणाम क्या होगा? यह उदाहरण इस भाव को समझने एवं समझाने के लिए पर्याप्त है। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि प्रत्येक स्तर पर समरसता की आवश्यकता है? ऐसा संरक्षणवादी व्यवस्था में ही संभव है, न कि आरक्षणवादी व्यवस्था से। इसी सिद्धान्त पर यदि हम आगे बढ़ेंगे तो बेहतर होगा अन्यथा जब हमारा पड़ोसी दुखी होगा तो हम कैसे सुखी रह पायेंगे?
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर)
(लेखक राम-जन्मभूमि न्यास के
ट्रस्टी रहे हैं और भा.ज.पा. केन्द्रीय
कार्यालय के कार्यालय सचिव रहे हैं)