आम जनता की कमजोर याददाश्त भी महंगाई के लिए जिम्मेदार


पेट्रोल के दाम में एक बार फिर वृद्धि होने से पूरे देश में हाहाकार मचा है। अब तक जिसे महंगाई कहा जाता था, अब वह जान लेवा बन चुकी है। वर्तमान दौर की महंगाई मौत के मुंह में झोंकने वाली है। ताज्जुब की बात तो यह है कि सरकार सिर्फ कंपनियों और बिचैलियों को फायदा पहुंचाने में लगी है। प्रधानमंत्री एवं मंत्री वादे पर वादे करते रहे हैं, मगर समाधान कुछ भी नहीं निकला है। आम जनता पूरी तरह बेबस है, उसकी समझ में नहीं आता कि आखिर वह क्या करे, किसके पास जाये। वैसे भी वर्तमान में राजनीति प्रबंधन का खेल है। यदि यह कहा जाये कि महंगाई बढ़ाने के लिए आम जनता भी

कम जिम्मेदार नहीं है, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

यह बात कुछ लोगों के लिए बड़ी अजीब-सी लग सकती है कि आम जनता की कमजोर याददाश्त भी महंगाई बढ़ने के लिए कम जिम्मेदार नहीं है, मगर इस बात में दम है? उसका कारण स्पष्ट है कि यदि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाये तो आम तौर पर जो सरकारें या प्रतिनिधि चुनकर आते हैं, उनका यही मानना होता है कि साढ़े तीन या चार साल तक अपनी मर्जी के मुताबिक शासन चलाया जाये, उसके बाद चुनाव आते ही ताबड़तोड़ जनता की सेवा में जुट जाया जाये, बेचारी इस देश की जनता कितनी भोली-भाली है कि अपने जनप्रतिनिधि या सरकार के चार साल के क्रिया-कलापों को भूलकर साल भर के क्रिया-कलापों को आधार मानकर समर्थन दे देती है। जन-प्रतिनिधियों या राजनैतिक दलों को यह अच्छी तरह से पता होता है कि आम जनता की याददाश्त बहुत कमजोर होती है।

यदि कोई सरकार दुबारा या तीसरी बार चुनाव जीतकर आ जाती है तो उसमें कुछ ऐसी भी सरकारें होती हैं जिनका मानना होता है कि उन्हें जनता ने यदि दुबारा सरकार बनाने का मौका दिया है तो निश्चित रूप से वह सरकार से बहुत खुश है। ऐसे में वह सरकार सत्ता में मदहोश होकर ऊल-जूलूल काम करने लगती है। हालांकि, सभी सरकारों के साथ ऐसा नहीं होता है। वर्तमान में जो यूपीए की सरकार है, उसे तो शायद यही लगता है कि वह जो भी कुछ कर रही है, बिल्कुल सही कर रही है। जहां तक महंगाई की बात है, तो सरकार महंगाई कम करने की बजाय उसके पक्ष में तरह-तरह के अनाप-शनाप तर्क दे रही है। आखिर वह भी क्या करे? भारत की जो चुनाव प्रणाली है वह भी तो इसके लिए जिम्मेदार है।

चुनाव के समय पार्टी एवं प्रत्याशियों के लिए अकूत पैसे की जरूरत पड़ती है। ये पैसा तो उन्हीं लोगों के माध्यम से आयेगा, जिनके पास पैसा है। अब यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि जो लोग चुनाव में पैसा खर्च करते हैं, उनके खिलाफ छापेमारी की कार्रवाई कैसे हो सकती है? पैसा तो आखिर इन्ही जमाखोरों, बिचैलियों एवं सट्टेबाजों के पास है।

चुनाव के वक्त यदि महंगाई आसमान से जमीन पर आ जाती है, तो उसे मैनेज किया जाता है, इसके लिए दृढ़ इच्छा शक्ति की जरूरत है। कभी तो सरकार कहती है कि लोगों की आमदनी बढ़ गई है, कभी कहती है कि लोगों में खरीददारी की क्षमता बढ़ गई, इसलिए महंगाई बढ़ रही है। महंगाई कम करने के लिए फिलहाल सरकार वादे पर वादे किये जा रही है, मगर महंगाई जरा भी कम नहीं हो पा रही है। आज स्थिति चाहे जो भी हो, लोकसभा चुनाव के कुछ महीने पहले से महंगाई अदृश्य तरीके से गायब हो जायेगी। चुनाव के बाद फिर से उसी अनुपात में आगे बढ़ने लगेगी।

कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी महंगाई के कारणों में एक नया फार्मूला ढूंढ लाये हैं, अब उनका कहना है कि गठबंधन की मजबूरियों के कारण महंगाई नहीं कम हो पा रही है। उन्हें यह बात देश के सामने बतानी चाहिए कि गठबंधन का ऐसा कौन-सा सहयोगी दल है, जो महंगाई बढ़ने के लिए जिम्मेदार है। बहरहाल, कुछ भी हो आज देश की जनता महंगई से बहुत त्रस्त है। इसके खिलाफ निश्चित रूप से देशभर में एक वातावरण बनना चाहिए जिससे यह सरकार महंगाई रोकने के लिए बाध्य हो जाये। महंगाई यदि राजनैतिक मुद्दा न बने तो सरकार को इससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है।