ज्योति-पर्व दीावली आती है, तो संपूर्ण देश की धरती प्रकाश के प्रपात में स्नान करने लगती है और जगमगा उठती है। ये सारे दीप तारों के समान दिखायी पड़ने लगते हैं। ऐसा लगता है कि पृथ्वी पर सारे तारे उतर आये हैं और टिमटिमा रहे हैं। यह अवनी अम्बर बन जाती है-
अम्बर बनी यह धरती, दीप सब तारे हैं,
टिम-टिम जलते हैं सब, लगते ये प्यारे हैं;
प्यासी आंखें न आज उठतीं गगन की ओर
देखती हैं दीपों का उजला फैला अंजोर।
अमाा-निशा में अंधकार काजल की तरह बरसते रहते हैं और दीपावली उस अंधकार के सागर को प्रकाश की अंजुरी से पी जाती है। इसका प्रतीकार्थ भी है। हमारे अंतस् के भी अंधकार को भी यह प्रकाश-पर्व समाप्त कर देता है। निराशा, हताशा, कुंठा और अवसाद का अंधेरा भी दूर होने की हम देवी से प्रार्थना करते हैं और यह कहते हैं कि अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो – तमसो मा ज्योतिर्गमय… इतना ही नहीं हम अपने जीवन के कल्पष या पाप को भी प्रकाश से धोते हैं – ‘शान्तं पापम्, शान्तं पापम्। इस प्रार्थना के साथ ही हमारे अंतर में भी आशा की किरणें विकीर्ण हो जाती हैं हमारे तेजोंमंडित मुख-मण्डल से विकार, चिंता और शोक का धूम दूर हो जाता है। हमारे नयन-कोरों में भी चमक भर जाती है।
प्रकाश-पर्व पर लक्ष्मी की आराधना के पीछे तात्पर्य यह है कि समुद्र-मंथन के पश्चात् प्राप्त चैदह रत्नों में से सबसे अधिक प्रकाशमान, दीप्रिमय और ज्योिितर्मय रत्न लक्ष्मी ही हैं। अमा निशा में ही वे समुद्र में अपने अलौकिक आलोद के साथ प्रकट हुई थीं। इसीलिए हम उस दिन उनके जन्मोत्सव के रूप में आलोक-पर्व मनाते हैं।
प्रकाश-पर्व पर हमारे मन में सबके लिए स्नेह, सद्भाव और प्रेम का प्रकाश होता है। हम दीप जलाते हैं और उनके समक्ष यह भी प्रार्थना करते हैं कि संपूर्ण देश के नवयुवकों के प्राणों को नया जयगान मिले, उनके कंठ की कुंठा मिटे और नये स्वप्न-जगत में वे विचरण करें, जहां अंधकार का कोई टुकड़ा भीन हो, सर्वत्रा प्रकाश हो। एक कवि के शब्दों में जगदम्बा के पूजा-गृह में एक दीप जला कर मां से यही निवेदन करते हैं-
आज समर्पित दीप एक उजड़े-टूटे जीवन को।
स्नेह समर्पित कटी जिंदगी के नश्वर क्रंदन को।।
अंधकार की धारा फैली और प्रकाश-तट डूबे।
बाजारों-सड़कों पर दिखते चेहदे ऊबे-ऊबे।।
उन्हें समर्पित करते हैं हम तो आज नया प्रकाश।
बांहों में भर लें उमंग से वे नूतन आकाश।।
……अमरेन्द्र कुमार