आजादी मिली, पर ‘होरी’ की पीड़ा बरकरार


तंत्राता की आकांक्षा मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। आजादी किसी रूप में हो- आर्थिक, सामाजिक या व्यक्तिगत, उसके लिए हमेशा आदमी में बलवती इच्छा रहती है। इस आजादी की तमन्ना को दबाने के लिए विश्व के कई देशों में सामूहिक नरसंहार के उदाहरण मिलते हैं। हमारा तो यह मानना है कि देश में जहां भी भीषण नरसंहार होता है, उसके मूल में स्वतंत्राता की ही इच्छा है। दबे-कुचले लोग आर्थिक और सामंती गुलामी की जंजीर तोड़ने की कोशिश करते हैं, तो सामथ्र्यवान या सरकार उन पर गोलियां बरसाती है और इसका नतीजा होता है सामूहिक नरसंहार। उस हिंसा के खिलाफ कभी प्रतिहिंसा भी होती है। यानी दबे-कुचले और असमर्थ लोग शक्तिशाली और सामंती भूपतियों के जुल्म के प्रतिरोध में प्रतिहिंसा करते हैं। यह केवल हमारे देश की बात नहीं है, बल्कि विश्व के कई ऐसे देश हैं जहां स्वतंत्राता की आकांक्षा के लिए वहां के आम आदमी को कुर्बानियां देनी पड़ती हैं और परतंत्राता की जंजीर में जकड़ने वाले नृशंस शासकों के जुल्म का शिकार होना पड़ता है।

हमारे देश में भी स्वतंत्राता के पूर्व आम आदमी ने विदेशी हुकूमत से मुक्ति के लिए लगातार संघर्ष किया और अंततः आजादी हासिल की। आजादी मिली, तो हमने चिमनियों  से उठते हुए धुएं में रोटी का सपना देखा हमने देखा कि खेत-खलिहान में धान-गेहूं की बलियां हवा के ताल पर झूम-लहरा रही हैं और झोपड़ियों से भी फाग और बिरहा के उल्लास भरे स्वर फूट रहे हैं। यानी हर पेट को रोटी है, हर हाथ को काम, हर होंठ पर हंसी है और हर मन में उल्लास। लेकिन हमारे सारे सपने चूर-चूर हो गये। स्वतंत्राता का लाभ आखिरी कतार में खड़ी जनता को नहीं मिला, इससे स्वतंत्राता का मूल्य नहीं रह गया।

गरीबों की गरीबी बढ़ी और मुठ्ठी-भर लोग रुपयों की फसल उगाने में लगे हैं। उनके लिए अब परम उपभोक्तावादी समय है, जहां सुविधाओं की चकाचैंध में उनकी आंखें चुंघिया रही हैं। कुछ लोग सुविधा सम्पन्न घरों से लेकर इंद्रियविलास के अड्डों तक अपने वैभव का खुलकर प्रदर्शन कर रहे हैं और तेजाबी आनंद में नहाकर आह्लादित हो रहे हैं। दूसरी और आम आदमी स्वतंत्राता के बाद नेताओं के खोखले आश्वासनों से छला जाता रहा है। क्रमिक रूप से टूटते-बिखरते जाना उसकी नियति बन गयी है।

नेता, ठेकेदार और आॅफिसर विलास-सुख में डूबते चले गये। उनकी आय तस्करों की तरह रही और उनकी तरह वे धनवान भी बन गये। इस विडंबना के बावजूद हमारी आजादी की तमन्ना अभी मरी नहीं है। अब यह आजादी की तमन्ना है वैभव के प्रकाश-पुंज से निर्मित जंजीर की मुक्ति की। इन गरीबों में आजादी के समय जो सपना अपनी आंखों में बसाया था, उसे पूरा करना है। अभी प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ के पात्रा ‘होरी’ का सपना पूरा होना बाकी है। आज भी प्रेमचंद का पात्रा ‘होरी’ उसी त्रासद स्थिति में हैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैैै। अंततः हम यही कहेंगे कि अभी हमें अपने स्वतंत्रा देश में भी आजादी के लिए संघर्ष करना है। अपनी संास-सांस में संकल्प भरकर। तभी आजादी मिलने के बाद हमने जो सपना देखा था, वह साकार होगा।

………….अमरेन्द्र कुमार